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अपनी कुटिया…..!!!!

March 11, 2020
Shanky❤Salty
दूर एकांत में कहीं
चलो चलते हैं
अपनी कुटिया ,अपनी दुनिया
बुढ़ापे की हमारी छोटी सी दुनिया
चलो ना चलते हैं
दूर एकांत में कहीं
सहारे सारे छूट गए
अपने सारे रूठ गए
कौन रहा है कौन रहेगा
अपनी तो अब फटी बिछनिया
बुढ़ापे की हमारी छोटी सी दुनिया
वही तपती धूप में तुम
कांपते हाथो से पंखा झल देना
जो जाड़े की सर्द रातें हो
तो अटकती सांसो की गर्मी दे देना
वो यौवन का प्रेम अब
चला है होने को अमर
तुम संग मेरे यही अपनी
देह त्याग देना
चलो ना चलते हैं
अपनी कुटिया,अपनी दुनिया
बुढ़ापे की हमारी छोटी सी दुनिया
वो महक तेरे केसुओ की
झंकार तेरी पायल की
मैं खोता चला जाता हूं
डूबता चला जाता हूं
जब भी तुझको देखता हूं
तुझ सी खूबसूरत तेरी आभा की झुर्रियां
खन खन करती तेरी चूड़ियां
मैं प्राण त्याग दूंगा तुझमें
तुम मुझमें सम्मिलित हो लेना
जब सांसे अटकती हुई जा रही हो
तुम हाथ दिल पर रख देना
चलो ना चलते हैं
दूर एकांत में कहीं
अपनी कुटिया ,अपनी दुनिया
बुढ़ापे की हमारी छोटी सी दुनिया

This is an Imagination Challenge post given by Sohanpreet Kaur
And thank you soooo much Dr. Sakshi Pal for kind support.

Author:

I am Ashish Kumar. I am known as Shanky. I was born and brought up in Ramgarh, Jharkhand. I have studied Electronics and Communication Engineering. I have written 10 books. I have come to know so much of my life that life makes me cry as much as death. Have you heard that this world laughs when no one has anything, if someone has everything, this world is longing for what I have, this world. Whatever I am, I belonged to my beloved Mahadev. What should I say about myself? Gradually you will know everything.

30 thoughts on “अपनी कुटिया…..!!!!

  1. 😍beautiful! बहुत अच्छा लिखा है।
    “अपनी कुटिया, अपनी दुनिया ” वाह!
    A very appropriate and beautiful response to the challenge. Thank you for accepting and creating this wonderful piece.

    Liked by 3 people

  2. बहुत ही प्यारी कविता। मजा आया पढ़कर। जिंदगी के कई रंग,एक रंग बुढापा है। मैंने भी एक कविता लिखी थी बहुत पहले।

    जब रूठा तू मुझे मनाती,
    गिरता जब भी मुझे उठाती,
    टूट गया तूँ छोड़ गई,कैसे खुद को समझाऊँ,
    बोल बता अब मेरे साथी, कैसे उम्र बिताऊं।

    जीवन से लड़ते मैं आया,
    हार कभी ना माना था,
    तेरे कारण ही सागर से,
    बचकर वापस आया था,
    घर आने की चाहत कलतक,
    ख्वाब गजब की होती थी,
    हाथों का तुम हार बनाती,
    गर्दन झुकती मेरी थी,
    यादों की फेहरिस्त बड़ी,
    हर याद में तू ही छाई,
    ऐसी कौन खुशी है जिसमे,
    तुम बिन खुशियां आई,
    गम कैसा ना कलतक जाना,
    दर्द को बिन बोले पहचाना,
    कहां गई तुम छोड़ के मुश्किल,
    सत्तर से आगे अब जाना,
    बादल बरस रहे हैं संग-संग,कैसे हाल सुनाऊँ,
    बोल बता अब मेरे साथी, कैसे उम्र बिताऊं।

    दिन तो कटते इधर-उधर,
    रातों को अजब सन्नाटा है,
    आज भी तेरी बिस्तर साथी,
    तेरी याद दिलाता है,
    बिन बोले तुम चली गई,
    बिन बोले अब मैं रोता हूँ,
    कहाँ गई तूँ देख जरा,
    अश्कों में दर्द पिरोता हूँ,
    दीप बिना बाती,बाती बिन कैसे दीप जलाऊँ,
    बोल बता अब मेरे साथी, कैसे उम्र बिताऊं।

    घर मे सारे लोग मगर,
    कोई ना साथ हमारे,
    अपने-अपने काम मे उलझे,
    नाती-पोता सारे,
    हम भी हैं इंसान मगर,
    हैं मूक आज पशुओं सा,
    हवा के जैसे चलनेवाले,
    कैद वहां पशुओं सा,
    भोजन अच्छे मगर बैल सा,
    मुझको मिलता साथी,
    किससे दिल की बात करें हम,
    कौन हमारा साथी,
    अपनो की खुशियों से खुश,मुश्कान कहां से लाऊं,
    बोल बता अब मेरे साथी, कैसे उम्र बिताऊं।

    !!! मधुसूदन !!!

    https://madhureo.wordpress.com/2017/08/31/patang-bina-dor/

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