घर में सेवा माँ बाप कि कर के तो देखो पीछे पीछे हरि फिरते दिखेंगे वो माँ पुराने ख्यालातों कि लगती है जिसने तुम्हें काबिल बनाने के लिए अपने माँ बाप के दिए जेवर गिरवी रख दिये थे क्यों अपने शब्दों से उनके सिने को छलनी करते हो जड़ों को काटोगे तो फल कहां से होगे पानी सींचों जड़ में माँ बाप को गले लगा देखो सारी अलाएं-बलाएं चलीं जाएगी और हरि पीछे पीछे आ जाएगें दवाओं में भी वो असर नहीं है जो माँ बाप की दुआओं में है जग की कितनी भी सवारी क्यों ना कर लो बाप के घोड़े की सवारी कहीं नहीं मिलेगी कितनी भी महंगे तकिये में क्यों ना सो लो माँ के गोद जैसे सुख कहीं नहीं मिलेगा सिखाते है माँ बाप मुझको रखो ना गाँठ तुम मन में ना तन में ग़र जीना है तुमको खुल के तो ना मान दिया ना दिया कभी अपमान माँ-बाप ने बस सिखाया है जहर कि पुड़िया है ये मान-अपमान हर हाल में मुस्कुराना सिखाया है
हे राम पता नहीं क्यों हम ऐसा करते जा रहे हैं जिन्दगी जन्नत है उनकी जिन्होंने माँ बाप के सिखाये रास्तों पे चला है जिस तरह राम जी हमारा बुरा नहीं कर सकते है ठीक उसी तरह माँ बाप हमारा बुरा नहीं कर सकते है गुलाबों की तरह महक जाओगे गर माँ बाप के संस्कारों को अपनाओगे ये रिश्ता गजब है जनाब तकलीफ तुम्हारे देह को होगी पर दर्द माँ बाप को महसूस होगी यार कृष्ण भी श्री कृष्ण तो माँ बाप से ही बने है राम भी श्री राम माँ बाप से ही बने है। तुम भी बन सकते हो हम भी बन सकते हैं महान ग़र ख्याल रख लिया माँ बाप का तो एहसानों वाला नहीं प्यार वाला माँ बाप के रहते ना किसी ने परेशानी देखी जब गुजरे माँ बाप तो ना रहा चेहरे पर मुस्कान ना देखा मुसीबतें ना रहा…….. क्यों मंदिरों मस्जिदों में ईश्वर, अल्लाह को खोजते हो
ये हमारा हंसना, गाना लिखना खेलना, कूदना, सोना सब उनसे ही तो है माँ बाप साथ हो ना तो बेफिक्री खुद-ब-खुद साथ आ ही जाती है वर्ना देखो उन्हें जिनके सिर से माँ का आँचल हट जाता है या पिता का साया हट जाता हो क्या हाल हो जाती है उनकी बस जिस्म रह जाता है जरूरत पड़ने पर एक माँ भी पिता का फर्ज निभाती है और पिता भी माँ का पता नहीं यह अलौकिक शक्ति कहाँ से आती है बच्चे होते हुए हमें कद्र नहीं होती माँ बाप की जब हम भी माँ बाप होते तो बच्चे करते नहीं कद्र हमारी ये सिलसिला चलता आ रहा है सब कुछ मालूम होते भी हम खुद को पतन के रास्ते ले जा रहे हैं
जामाने को कठोर कहते हो माँ के कोमल हृदय को छोड़ उसे जमाने में फंसे रहते हो माना की पिता की बात नीम जैसी कड़वी है पर यार सेहत के लिए तो वही अच्छी है सिखाया था मेरे राम जी ने मुझको हर चाहत के पीछे मिल दर्द बेहिसाब है पर एक माँ बाप ही हैं जो ग़र साथ हो ना तो वहाँ दर्द का नामो निशां नहीं है ज़िन्दगी की जंग मौत से लड़ कर मैं पड़ा था बेड पे गुरुग्राम कि अस्पताल में जिंदा लाश बन के वो पिता ही जो टूट चुके थे लेकिन आँखों से आँसू छुटने नहीं दिया हाल मेरा बेहाल देख मुझसे पूछा नहीं डर था उन्हें, कहीं उनके आँसूओं को देख मैं टूट ना जाऊँ डाक्टर थक गए थे मेरे हृदय की गति को सामान्य करने में पर वो पिता ही थे जिन्होंने मेरे हृदय पर हाथ रखते ही उसे सामान्य कर दिया था 5 दिन से नींद मुझसे रूठी थी माँ की थपकियों और लोरियों ने मुझे सुकून का नींद दिलाया था क्या कहूँ मैं जनाब यार ये साँसे है तो उन्हीं की अमानत
कितनी आसानी से कह देते हैं हम समझते नहीं है माँ बाप हमारे पता नहीं हम ये बात समझ क्यों नहीं पाते हैं बड़े क्या हो गए हम मानो पंख ही आ गए चलना क्या सीख लिया उनकी उंगली पकड़ कर उड़ना ही शुरू कर दिया हमनें रास्ता दिखाया माँ बाप ने और व्यवहार हमारा ऐसा जैसे खुद ही बनाया रास्ता हमनें किसी शख़्स ने बहुत खूब लिखा था खुली आँखों से देखा सपना नहीं होता माँ बाप से बढ़कर कोई अपना नहीं होता
वो बाप ही जनाब जो भरे बाजार में अपनी पगड़ी उछलने ना देगा पर अपने बच्चों की खुशी के खातिर ही भरी महफ़िल में भी अपनी पगड़ी किसी के पैरों पे रख देगा अपनी खुदगर्जी के लिए वो बच्चे बाप को भी भरे बाजार में गलत कह देगा जीवन के एक पड़ाव में जरूरत होती है माँ-बाप को हमारे एहसानों की नहीं हमारे प्यार की जिसने हमें हर आभावों से दूर रख काबिल बनाया उन्हें ही हम आभावों में रख रहे हैं अपने चार दिन के मोहब्बत के खातिर हम तमाशा कर देते हैं उनका जिसने हमारे जन्म से पहले ही ताउम्र हमसे मोहब्बत की सौगंध खाई थी
जब माँ बाप साथ हो ना तो किसी भी चीज कि परवाह नहीं होती उनके होने से ही हर दिन होली लगती है हर रात दिपावली लगती है और ना हो ग़र माँ बाप तो पूछो उनसे होली भी बेरंग सी लगती है दिपावली भी अंधियारा सा लगता है आँखों में आँसू और मन भारी सा लगता है क्या मंदिर मस्जिद भटका है वो क्या स्वर्ग कि चाहत होगी राम जी उन्हें माँ बाप मिले हैं जिन्हें चरणों में ही माँ बाप के बैकुंठ होगी पता नहीं राम जी वो औलाद कैसी है जो सफलता की शिखर पर पहुंच कर पूछता है माँ बाप से तूने किया ही क्या है मेरे लिये बस राम जी यही कारण है उसके पतन का कहता है वो औलाद जो भी किया वो तो फ़र्ज़ था पर कैसे समझाऊँ मैं उनको यार कम से कम माँ बाप ने फ़र्ज़ तो पूरा कर दिया पर तुमने क्या किया यक़ीनन दुनिया में बहुत सी चीजें अच्छी है पर सच कहता हूँत मैं हमारे लिए तो हमारे माँ बाप ही सबसे अच्छे है
खुशियां ज़िन्दगी में कम होती जा रही है दो रोटी के लिए हम माँ बाप से जो अलग होते जा रहे है माँ बाप के प्यार जैसे प्यारा और कुछ नहीं लगता है माँ बाप के चेहरे में खुशियां आसानी से दिख जाती हैं पर ज़ख्मों का दाग दिख नहीं पाता है अपने संस्कारों से हमारी हिफाज़त करने का संकल्प जो लिया है उन्होंने अपनी जान से भी ज्यादा हमको चाहा है हम सबने सत्यवान और सावित्री कि कहानी सुनी ही होगी की यमराज से भी अपने पति की प्रारण ले आती है पर यह तो माँ बाप है जो मृत्यु तो बहुत दूर कि बात है यह तो संकट को भी पास भटकने ना दें ऐसा अद्भुत प्रेम है इनका पिता हमारी खामोशियों को पहचानते हैं माँ हमारे आँसूओं को आँचल में पिरोती हैं बिन कहें ही हालातों को हमारे अनुकूल कर देते है
जरूरतें अपनी भुला कर हसरतें मेरी पूरा करते थे वो और कोई नहीं मेरे मेरे पिता थे मेरी चीखों को मेरे आँसूओ को वो मुस्कान में बदलती थी आज जब वो बूढ़ी हो गई है तो ना जाने क्यों हमें उसके जरूरतें कि चीख-पुकार कानों तक नहीं रेंगती है यक़ीनन बेटा अब बड़ा हो गया है पैरों पर खड़ा हो गया है जमाने की चकाचौंध में वो अपने माँ बाप को भूल गया है अरसा बीत गया होगा माँ की गोद में सोए हुए पर कोई बात नहीं जब माँ सदा के लिए सोएगी ना तब हमें उसके गोद की कमी खलेगी एक अनुभव लिखता हूं मैं करीब नौ-दस घंटे मैं जंग लड़ रहा था हाँ वही मृत्यु से दुआओं का दौर चल रहा था मेरे अपनों का जंग करीब करीब जीत चुका था खबर भी फैल गई थी जंग में जीत हो गई है लोग अपने अपने घर चल दिए थे कुछ लोगों ने खाना खा लिया था तो कुछ सो चुके थे पर कुछ ही देर में बाजी पलट चुकीं थी मृत्यु ने प्रहार शुरू कर दिया था सफेद चादर से मैं लिपटा था पल भर में ही खून के फव्वारों से वो लाल हो गया हार चुका था मैं शायद मर चुका था मैं जिंदगी की जंग को चीखता रहा मैं चिल्लाता रहा मैं पर मृत्यु ने अपनी पकड़ नहीं छोड़ी मेरे शरीर से मेरे प्राणों को खींच कर अलग करने ही वाली थी कि तभी ईश्वर के दूत आए हाँ माँ पापा आए माँ मुझको देख हैरान तो हो गई थी पर मृत्यु उन्हें देख परेशान हो गई थी पापा ने तुरंत ज़िंदगी के कागज पर दस्तखत कर जीत का आदेश लिखा फिर क्या मृत्यु को इजाजत ही नहीं मिली और खाली हाथ उसे वहाँ से लौटना पड़ा कहाँ ना मैंने बहुत पहले जिनके सिर पर माँ-बाप का हाथ होता है वहाँ पर मृत्यु को भी इज्जात लेनी पड़ती है
साँसे रुक जाती है ना उनकी सुकून की नींद उड़ जाती है हमारी पिता कि साया हटते ही बच्चे खुद-ब-खुद बड़े हो जाते है माँ के गुजरते ही बच्चे तकिये में मुँह छुपा रोते रह जाते है जमीन के टुकड़े के लिए हम माँ बाप के दिल के हाजारों टुकड़े कर देते है गरीबी सताती जरूर थी पर हमारा पेट भर वो खुद भूखा रहती थी तो वो और कोई नहीं हमारी माँ ही थी हम कैसे खुश रहे इस सोच में ही तो माँ बाप सारी जिंदगी गुजारते हैं धन लाख करोड़ कमाया है माँ बाप को खुद से दूर कर तूने असली पूंजी गवायाँ है खाया है मैंने माँ के एक हाथ से थप्पड़ तो दूजे से घी वाली रोटी याद है मुझे वो रात भी जब खुद की नींद उड़ा कर गहरी नींद में सुलाती थी खुद गीले में सो कर मुझको सूखे में सुलाती थी
माँ की ममतामयी आँखों को, भूलकर भी गीला ना करना और माँ की ममता का पिता की क्षमता का अंदाजा लगाना असंभव है उंगली पकड़ कर सर उठा कर चलाना सिखाया है पिता ने अदब से नज़रें झुका कर चलना सिखाया है माँ ने सब सिखाया है माँ ने हौसला भरा है पिता ने यश और कीर्ति दिलाया है पिता ने माधुर्य और वात्सल्य दिलाया है माँ ने कर्ज लेना कभी नहीं सिखाया आपने पर ना जाने क्यों हमें आपने कर्जदार बना दिया है जिसे इस जन्म में तो पूरा करना संभव ही नहीं है जब तक साँसे है तब तक कर ले ना प्यार उनको
निकल रहा था मैं वृद्धाआश्रम से गुजरते देखा मैंने एक औरत को वृद्धाआश्रम के बगल से शुक्रिया अदा कर रही थी वह ईश्वर को रहा न गया मुझसे पूछ बैठा मैं “आप कौन हो” मुस्करा वह कह गई “एक बाँझ हैं”
गूगल के द्वारा पता चला है भारत में कुल 728 वृद्धा आश्रम हैं और 2 करोड़ अनाथआलय हैं
वो कहते हैं न कर्म का फल सबको भोगना ही पड़ता है…!! खैर छोड़ो तुम्हारी जो मर्जी हो करना बस हाथ जोड़ कहता हूँ सिर्फ एक बार सिर्फ एक बार हर दुआ में उसकी दुआ है जिसके सिर पर माँ की छाया है समझो ना वहीं पर खुदा का साया है काँटों को फूल बनाया है पिता ने हर मुश्किल राह को आसान जो बनाया है सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुझको सूखे में
मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ हृदय की पीड़ा है जब सुनता हूँ बलात्कार हुआ, किशोराअवस्था में बच्ची गर्भवती हो गई, 17 साल की बच्ची का गर्भपात हुआ, इश्क कर बच्चे भाग गए…. अब आगे क्या कहूँ मेरे आँसू ही जानते हैं शायद माँ-बाप ने अच्छे संस्कार नहीं दिये होंगे इसलिए ऐसा हुआ होगा यह कह हम ही ऊँगली उठाते हैं
अच्छा छोड़ो ये सब बातें
ग़र तुम्हें एक साथ आँखों से सच देखना है और कानों से झूठ सुनना है तो किसी वृद्धा आश्रम जा कर वहाँ रहने वाले किसी से भी उनकी ख़ैरियत पूछ कर देखो तुम खुद-ब-खुद समझ जाओगे मैं कहना क्या चाहता हूँ और लिखना क्या चाहता हूँ
खैर छोड़ो तुम बड़े हो गए हो तुम्हारे पास वक्त कहाँ सच में अब तुम बड़े हो गए हो वक्त कहाँ है, बुढ़ापा आने में
मेरे इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं होगा पर मेरी पंक्तियों को पढ़ हर किसी के
आँखों से आँसू छलक ही जाएगा यार वो कितना भी पत्थर दिल क्यों ना हो वो एक ना एक पल पिघल ही जाएगा हमें जीवनसाथी तो हजारों मिल जाएंगे परन्तु क्या माँ-बाप दुसरे मिल पाएँगे ???
अब बेसरमों कि तरह हाँ मत कह देना हाथ दिल पल रख मैं कहता हूँ एक बार प्यार से माँ-बाप को गले लगा के तो देखो प्रेम दिवस उनके साथ मना के तो देखो सच कहता हूँ तुम निःशब्ध हो जाओगे जब माँ-बाप के हृदय से तुम्हारे लिए करुणा, माधुर्य, वात्सल्य छलकेगा न तब तुम्हारे रूह से आवाज आएगी
हो गए आज सारे तीर्थ चारों धाम घर में ही कुंभ है माँ-बाप की सेवा ही शाही स्नान है
मान लो मेरी बात
बाकी तो आप जानते ही हो क्योंकि सुना है आप समझदार हो
यही दिव्य प्रेम है मेरे शिव जी ने भी कहा है:- धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोदभवः धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता
जिसके अंदर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसके पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है उसके वंश में जन्म लेनेवाले धन्य हैं, समग्र धरती माता धन्य है
वैसे प्रथम गुरु कौन होता है हम सबको पता ही है तो कर लो न गुरुभक्ति उत्पन्न
बचपन में बच्चों कि तबियत बिगड़ती थी तो माँ-बाप कि धड़कनें बढ़ती थीं आज माँ-बाप कि तबियत बिगड़ी है तो बच्चे जायदात के लिए झगड़ते हैं हम प्रेम दिवस मनायेंगें माँ-बाप को भूल प्रेमी संग जिन्दगी बितायेंगे सच कहूँ तो, रूह को भूल जिस्म से इश्क़ कर दिखायेंगे पता नहीं माँ-बाप ने कैसे संस्कार हैं हमको दिये बड़े होते ही इतने बतमीज़ बन गए जिनकी कमाई से अन्न है खाया आज उनको ही दो वक्त की रोटी के लिए है तरसाया गूगल पर माँ-बाप की बहुत अच्छी और प्यारी कविताएँ मिल जाती हैं मुझको, पर पता नहीं क्यों मैं निःशब्ध हो जाता हूँ वृद्धा आश्रम की चौखट पर आ कर कर माँ-बाप का तिरस्कार वो मेरे राम जी के सामने आशीर्वाद हैं माँगते अब किन शब्दों में समझाऊँ में उनको ईश्वर ही हमारे माँ-बाप बनकर हैं आते अपने संस्कारों से जिसने हमें है पाला आज हमने अपनी हरकतों से जीते जी माँ-बाप का अंतिम संस्कार है कर डाला भरे कंठ लिए एक सवाल है गर माँ-बाप से मोहब्बत है तो वृद्धा आश्रम क्यों खुले हैं ????
हर रिश्ते में स्वार्थ देखा है हमनें एक माँ-बाप ही हैं जिन्हें निस्वार्थ देखा है वो बचपन में ही खुशियों के रास्ते खोल देते हैं हम बड़े हो कर उनके लिए ना जाने क्यों वृद्धा आश्रम के रास्ते खोल देते हैं पढ़ा-लिखा कर हमको काबिल बना देते हैं पर हम कभी उनके दर्द को पढ़ नहीं पाते हैं अपने अरमानों का गला घोट जिन्होनें हमे इंसान है बनाया हमनें अपनी इंसानियत को मार माँ-बाप की आँखों से आँसू बहाया है जिन्होंने हमको उंगली पकड़ चलना सिखाया है हमने उनको हाथ पकड़ घर से बेघर कर दिखाया अपनी ख़ुशबू दे हमको जिन्होंने फूल बनाया है हमने तो काँटे दे उनको रुलाया है जिसने काँधे पे बैठा हमें पूरा जहाँ घुमाया है उसे सहारा देने पे हमें शर्म आया है हमारी छोटी सी खरोंच पर उसने मरहम लगाया है हमने अपने शब्दों से ही उनके दिल में जख़्म बनाया है माँ-बाप ने हमें सुंदर घर बना कर दिया हमनें भी उनको बेघर कर अपनी औकात दिखा दिया….(आगे जारी है)
मेरी एक और नई किताब जिसमें 400 से अधिक कविता और कोट्स का संग्रह है इस पुस्तक में जिसे एक छोटी सी बात और उसमें बड़ी सी बात के रूप में लिखने की कोशिश किया है। आशा है आपको पसंद आएगी।
गीता केवल एक ग्रंथ या पुस्तक नहीं है अपितु जीवन जीने की कला है। गीता ऐसा अद्भुत ग्रंथ है की थके, हारे, गिरे हुए को उठाता है, बिछड़े को मिलाता है, भयभीत को निर्भय, निर्भय को नि:शंक, नि:शंक को निर्द्वन्द्व बनाकर उस एक से मिला के जीवन का उद्देश्य समझाता है।
गीता में अठारह अध्याय है जो हमारे जीवन के विकास के सर्वोपरी है। 1. अर्जुन का विषाद योग:- जब अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने गुरु, मामा, पुत्र, पौत्र, ससुर, ताऊ, चाचा और मित्रो को देखा तो शोक करने लगे और मैं युद्ध नहीं करूँगा यह कह कर अपना धर्म का त्याग कर रथ के पीछले भाग में बैठ गए।
2. सांख्य योग:- श्री कृष्ण महाराज ने अर्जुन को ज्ञान योग के द्वारा समझाया की शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और वे पण्डतों के जैसे वचनों से कहतें हैं कि “ना तो कभी ऐसा था कि मैं किसी काल में नहीं था, और ना ऐसा कभी था कि तू नहीं या फिर ये राजाजन नहीं थे और ना ऐसा है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे, तूझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दसूरा कोई कल्याणकार कतर्व्य नहीं है।”
3. कर्मयोग:- स्पष्ट शब्दों में ऋषिकेश महाराज ने समझाया है कौन से कर्म करने योग्य है और कौन से कर्म नहीं करने योग्य। और सबसे महत्वपूर्ण यह की कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षण भर भी बिना काम किये नहीं रहता। शास्त्रविहित कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेठ है।
इसी तरह ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग’ आत्मसंयम योग, ज्ञान विज्ञान योग, अक्षरब्रह्म योग, राजविद्याराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शन भक्तियोग, क्षेत्रक्षत्रविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरूषोत्तमयोग, दैवासुरसंपद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग, मोक्षसंन्यासयोग में श्रीकृष्ण महाराज ने केवल और केवल जीवन को जीने की कला ही सिखाई।
विश्व की 578 भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है। गीता किसी एक देश, जातियों, पंथों की नहीं है बल्कि तमाम मनुष्यों के कल्याण की अलौकिक सामग्री भरी हुई है। भोग, मोक्ष, निर्लेपता, निर्भयता आदि तमाम दिव्य गुणों का विकास करनेवाला यह गीताग्रंथ विश्व में अद्वितीय है। स्वामी विवेकानंद जी तो श्रीमद्भगवत गीता को “माँ” कहा करते थे। मदनमोहन मालवीय जी श्रीमद्भगवत गीता को “आत्मा कि औषधि” कहा करते थे। श्रीमद्भगवत गीता किसी धर्म, जाती, समुदाय, मजहब का पुस्तक नहीं है अपितु यह संपूर्ण मानव जाती के लिए है।
श्रीमद्भगवत गीता वह ग्रंथ है जो हमें सिखाती है “सुख टिक नहीं सकता और दुःख मिट नहीं सकता” मुझे लगता है कि गीता को हाथ में रखकर कसमें खाने से कुछ नहीं होगा अपितु गीता को हाथ में रखकर पढ़ना होगा।
गीता हमें युद्ध सिखाती है अपने दुश्मनों से और प्रेम करना सिखाती है अपनों से। लेकिन हम ही अपने दुश्मन है और हम ही अपने मित्र है। कोई बाहरी हमें आकर नुकसान नहीं पहुंचा सकता है जितना हम स्वंय को अपने विचारों से और अपनी वासनाओं से पहुंचाते है। इसलिए युद्ध तो जरूरी है लेकिन स्वयं से। जब तक खुद के रावण को नहीं जलाओगे तब तक राम से नहीं मिल पाओगे।
कहते हैं लोग नहीं है वक्त इसलिए पढ़ नहीं पाते हैं गीता को सच कहता हूँ वक्त नहीं है इसलिए तुम पढ़ा करो गीता को
इश्क नाम ले जज्बातों से खेल कर वह कितने ही मर्दों के साथ क्यों न सोए वो अबला ही कहलाएगी और ईमान से चंद रुपयों के खातिर वह कितने ही मर्दों के साथ क्यों न सोए वो वैश्या ही कहलाएगी
हमें खुशियाँ चाहिए ना घर में, ऑफिस में, दुकान में रोड पर हर जगह हमें खुशियाँ चाहिए ना बच्चों से, बड़ों से, पत्नी से, पति से, माँ-बाप से हर किसी से हमें खुशियाँ चाहिए ना हर पल, हर क्षण हम खुशियों के पीछे भाग रहे हैं पर क्या खुशियाँ हमें मिल रही हैं? शायद नहीं, क्योंकि पढ़ा हैं मैंनें और अनुभव किया हैं हर खुशी के पीछे ग़म की कतारें हीं है कमरे क्या है बन्द दीवारे ही है हक़ीक़त में जिसे हम अपना समझ रहे हैं और खुशियाँ चाह रहे हैं उनसे वहीं हमारे दुखों का कारण बन रहें हैं वास्तविकता में जो हमारे अपने हैं उन्हें हमने मंदिरों तक सीमित कर दिया है उनके कहे वचनों (भगवद्गीता) को घर में किसी ऊँचे स्थान पर रख दिया हैं कभी कभार तो हम भीखमंगा बन कर उनसे खुशियाँ माँगते है पर दरसल वह खुशियाँ हमारे दुखों का कारण बनती है राम जी तो अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार है लेकिन हमारी हालत कुछ ऐसी है जैसे सुनार की दुकान पर जाकर कोई चप्पल माँगता हो
नर्क की आग से भी बद्तर जुल्म हुए उस मासूम के साथ वैश्यावृत्ति कि आग में धकेल दिया था घर वालों ने कहा था शहर कमाने के लिए बिटिया को भेजा था दरसल पैसे के लिए बिटिया को बेच दिया था
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ खयालों की मोटरी बाँध चलती हूँ ह्रदय में एक आस लिए जीती हूँ यूँ हीं नहीं चलती हूँ अक्सर थक कर दिवारों का सहारा ले कर बैठ जाती हूँ रोना तो चाहती हूँ पर घूंट कर रह जाती हूँ साँसें तो चलती है पर लगता है ज़िन्दगी थम सी गईं है बस ह्रदय में एक आस है पर हकीकत में कोई भी नहीं पास है ग़म के आँसू सुख चुके हैं मन की प्यास भी शायद बुझ चुकी हैं मंज़िल तक तो जाना है पर रास्ते कब खत्म होगें पता नहीं थक तो गई हूँ पर जताना नहीं चाहती कोई समझने को तैयार नहीं जब कहती हूँ कुछ तो हर कोई कह जाता है हाँ मालुम है मुझको सब कुछ पर मालूम होना ही सबसे बड़ा ना मालुम होना है कोमल सा दिल था जिसकी कोमलता को खत्म कर कठोर कर दिया गया विशवास के डोर में बाँध कर फाँसी का फंदा दिखा दिया प्यार दिया या दिया दर्द पता नहीं पर दिया कुछ तुने यह पता है शायद वह है अनुभव अब जादा फरमाइश नहीं है बस जो होता है शांति से सह जाती हूँ ना तो हूँ मैं राधा ना चाहत है मोहन की हूँ मैं एक इंसान बस हर किसी से इंसानियत की उम्मीद लगाए बैठती हूँ
मर तो रोज ही रहें हैं हम और एक दिन मरना भी तय ही है
ह्रदयाघात से तड़प कर मरेंगे हम? या युंही सोए_सोए मर जाएंगे?
रोड के किनारे लावारिस मौत होगी? या चिंता से चिता नसीब होगी?
ज़िन्दगी एैसी हो गई है मानो लकड़ी को दीमक ने घेर रखा हो बोलने से दिक्कत होती थी अब मेरे मौन से दिक्कत है
लगता है दिक्कत का मूल कारण ही मैं हूँ, भीड़ से थक कर अकेले बैठा था वो भी हज़म ना हुआ उन्हें तानों की बाढ़ सी ला दी जीवन में भीड़ को खोया या ना खोया मैनें पर खुद को जरूर खो दिया
सुरत अच्छी हो तो लोग जिस्म नोचते हैं सिरत अच्छी हो तो लोग रूह नोचते हैं
सवालों में उलझा कर उत्पीड़न करते हैं मेरे लिखने का भी मतलब निकलेगें
हकीकत में तड़प कर मुझको मौत ही मिलेगा आत्महत्या नहीं अक्सर हत्या होती है जो किसी काग़ज़ पर लिखी नहीं होती है यातनाएं दी तो दीं
लेकिन “हमें क्या तुम्हें जो ठीक लगे वह करो” का तमाचा भी जड़ जाती है नींद की गोलियाँ भी क्या असर करेगी भला जब बद्दुआओं में मेरे नाम की गालियाँ का असर हो
मुझे सुनने के लिए मेरे शब्द नहीं तुम्हारे वक्त कम पड़ जाएंगे नसीहतों कि पोटली बहुत है मेरे पास लेकिन साथ चलने वाली छड़ी नहीं है मेरे पास आत्महत्या नहीं हत्या होती हैं तनाव होता नहीं ,दिया जाता है
हमारी ये हस्ती आपसे है राम, आपके होने से ही ज़िन्दगी हमारी मस्ती में है राम, है वफ़ा मुझको आपसे राम इसलिए तो आप हमारे हो राम और हम आपके राम, भला वो हमारा कैसे होगा राम जिसने भरी महफ़िल में किया है बेवफाई आपसे राम
दीपावली सफाई का, उजाले का पर्व खुशियां मनाने का ,अंधकार पर विजय का पर्व
घर-द्वार साफ करते हैं लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए ग़र इस दीपावली कर ले हम मन की सफाई तो लक्ष्मी जी महालक्ष्मी जी के रूप में सदैव विराजमान रहेगी
हर दीपावली वर्मा जी के घर से एक किलो काजू कतली का तोहफा आता है गुप्ता जी के घर से एक किलो सोन पापड़ी का भी तोहफा आता है बदले में हम भी वर्मा जी, गुप्ता जी को उतने का ही कुछ-न-कुछ तोहफा दें ही आतें है ताकि समाज में इज़्ज़त बनीं रहें पर इस बीच वो चौराहे वाला अनाथ राजू बेचारा मायूस रहे जाता है दीयें बनाने वाले की गुड़िया फुलझड़ी नहीं जला पाती है
विडंबना इतनी है की त्यौहार केवल सम्पन्न व्यक्ति अपने आप तक ही सीमित रखता है खुशियां बाँट तें तो हैं हम पर केवल अपने स्तर तक के लोगों तक ही मान प्रतिष्ठा जहाँ मिलें वहीं जातें हैं खुशियां मिलती जरूर होगी दीपावली की पर आनंद नहीं मिल पाएंगा कभी
दीन-दुखियों के चेहरे पर मुस्कान ले आओ ना दुसरों का हक़ छीनने से घटता है खुद का हक़ बाँटने से दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ता है हो सके तो इस बार मिठाईयाँ उन्हें भी खिलाओ जिनके पास खाने को नहीं है दो दीये उनके घर भी जलाओ जिनके घर के दीये बुझ रहें हैं मन की थोड़ी बहुत भी सफाई कर लो ना दरिद्र नारायण की सेवा कर लो ना ह्रदय मंदिर में एक दीपक खुद के लिए भी जला लो ना अहंकार को मिटा कर ज्ञान का दीप जला लो हर पल हर क्षण दीपावली मनाने की ये तरकीब अपना लो
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बलि बकरे की, या किसी चिज वस्तु की या अपने अहमं का बलि देना है
विदाई क्या माँ हम सबसे विदा लेती है? मेरी नज़रों में असंभव सा लगता है हाँ, हम विदा ले सकते हैं हम जुदा कर सकते हैं अपने मन और बुद्धि को माँ से लेकिन माँ हमेशा मेरे साथ है और रहेगी इसके तनिक भी संदेह नहीं है
कुपुत्र का होना संभव है लेकिन कहीं भी कुमाता नहीं होती
राम ने सब कुछ त्याग कर शांति का मार्ग बताया है पर क्या तनिक भी त्याग है हम में है? ग़र भुल से कही कुछ त्याग भी दिया तो सरेआम ढ़िढोरा पीटने की बिमारी भी है जब तक चित में त्याग नहीं होगा तब तक चित में शांति नहीं होगी क्योंकि शांति वही होती है जहां कुछ ना होता है चाहे वो बाजार हो या हो मन
मेरे राम ने शस्त्र से पहले शास्त्र उठाया था तब जाकर शस्त्र का उन्होंने सही ज्ञान पाया था युं हीं नहीं राम ने श्रीराम का ख़िताब पाया था
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ खयालों की मोटरी बाँध चलती हूँ ह्रदय में एक आस लिए जीती हूँ यूँ हीं नहीं चलती हूँ अक्सर थक कर दिवारों का सहारा ले कर बैठ जाती हूँ रोना तो चाहती हूँ पर घूंट कर रह जाती हूँ साँसें तो चलती है पर लगता है ज़िन्दगी थम सी गईं है बस ह्रदय में एक आस है पर हकीकत में कोई भी नहीं पास है ग़म के आँसू सुख चुके हैं मन की प्यास भी शायद बुझ चुकी हैं मंज़िल तक तो जाना है पर रास्ते कब खत्म होगें पता नहीं थक तो गई हूँ पर जताना नहीं चाहती कोई समझने को तैयार नहीं जब कहती हूँ कुछ तो हर कोई कह जाता है हाँ मालुम है मुझको सब कुछ पर मालूम होना ही सबसे बड़ा ना मालुम होना है कोमल सा दिल था जिसकी कोमलता को खत्म कर कठोर कर दिया गया विसवास के डोर में बाँध कर फाँसी का फंदा दिखा दिया प्यार दिया या दिया दर्द पता नहीं पर दिया कुछ तुने यह पता है शायद वह है अनुभव अब जादा फरमाइश नहीं है बस जो होता है शांति से सह जाती हूँ ना तो हूँ मैं राधा ना चाहत है मोहन की हूँ मैं एक इंसान बस हर किसी से इंसानियत की उम्मीद लगाए बैठती हूँ
दर्द लिखूँ या लिखूँ मैं अपनी हालात बेचैनी लिखूँ या लिखूँ मैं वो कसक, आँखों के काले आँसूं बहे थे जब तुम मुझे छोड़ गए थे हाँ तुम्हारे नाम का काजल लगाया था वो बह गए थे तुम्हारे जाने की खबर से काँच की चुड़ियाँ जो पहनी थी वो तोड़ दी गई थी हकीकत में मुझे काँच की तरह तोड़ दिया गया था, तेरे जाते ही जलते दीये को राम जी ने बुझा दिया था मेरा सुहाग उजाड़ दिया था विधवा नाम मुझको दिया गया माँग से सिंदूर पोछ दिया गया जो तेरे नाम के नाम मैं लगाया करती थी, मैं रोती नहीं क्योंकि आँसू तो सूख गए मेरे तुम मुझसे रूठे थे या किस्मत मेरी फूटी थी पता नहीं पता तो बस इतना है जीवन मेरा बस अब अकेला है जीवन साथी ने साथ सदा के लिए छोड़ा है,
दो चिड़ियाँ दिखाई थी तुमनें और कहा था यह हम दोनों हैं पर देखो ना वो दोनो तो आज भी साथ है पर तुम क्यों नहीं हो मेरे साथ कहाँ उड़ गए तुम? मेरी नींद तुम उड़ा ले गए जब से तुम सदा के लिए सोए,
आज भी मुझे याद है जब से सुहागन हुई थी मैं कहते थे लोग निखर गई हूँ मैं पर तुम्हारे जाते ही बिखर गई हूँ मैं
छन-छन पायल की आवाज से घर गूंजा करते थे अब मेरी चीखों की आवाज से मेरा मन गूंजा करता है तुम्हारी जान थी ना मैं आज बेजान हो गई हूँ मैं,
तुम्हारा होना और तुम्हारा होने में होना बस दिल को तसल्ली देने वाला है
विधवा हूँ मैं तिरस्कार की घूंट पीती हूँ मैं श्रृंगार के नाम पर सिहर जाती हूँ मैं सहारा नहीं मिलता बस सलाह ही मिलती है अछुत सा व्यवहार होता है शुभ कर्मों से हटाया जाता है विधवा कह कर बुलाया जाता है
कोई झांकने तक नहीं आता है ना दवा देता है ना देता है जहर बस ताने ही मिलें हैं बस तड़पता छोड़ जाता है तेरे जाते ही घर का चुल्हा बुझ गया था पर ह्रदय में आग लग गई थी कहते हैं लोग मैं तुम्हें खा गई हूँ
रात लम्बी होती है पर हकीकत तो यह है मेरी ज़िन्दगी अब विरान हो गई है मरूस्थल-सी हो गई है बस काँटें ही रह गए है फूल तोड़ ले गया कोई जात मेरी विधवा हो गई,
बैठ चौखट पर तुम्हारा इंतजार करूँ मैं प्रियतम आओगे ना तुम अब कभी पर आए है मेरे आसूं तुम्हारी याद में ले गए खुशियां तुम मेरी ले जाते तुम भी मुझको सती सी जलती मैं भी चिता के साथ तुम्हारी ज़िंदगी में नज़रें लग गए मेरी हँसती खेलती ज़िन्दगी लुट गई मेरी
सूरज की लाली देख मुस्कुराती थी मैं आँखें अब भी लाल ही रहती हैं मेरी पर मुस्कुराती नहीं हूँ मैं वो तो बस कहने की बात थी सात जन्मों के लिए मैं तुम्हारी थी हकीकत में तो मैं असहाय थी मेघ भी बरसे सूरज भी चमके पर तुम्हारी तुलसी सूखी ही रह गई तेरे जाने के बाद
तुम्हारे बाग की फूल थी मैं जो बिखरी पड़ी है समाज के कुछ कुत्ते नज़र डालते है तन का सुख देने की बात करते हैं मेरे मन को कचोटतें हैं लोग कहते थे दुख बाँटने से कम होता है पर मेरा दुख तो एक बहाना है दरसल उन्हें मेरे साथ बिस्तर पर सोना है ह्रदय बहुत रोता है मेरा हाथों में तुम्हारे नाम की मेहेंदी लगाई थी मैंने मेहेंदी की लाली चली गई और तुम भी हाथों की लकीरों से चले गए,
इश्क़ मुकम्मल ना हो तो लोग रोते हैं मरने की बात करते हैं ज़रा मुझको भी बतलाओ ना मैं करूँ तो क्या करूँ ह्रदय तो है पर धड़कन नहीं है जिस्म तो है पर जान नहीं है दर्द तो इतना हैं की शब्द नहीं है बयां करने को भला कोई क्या समझे मेरे दर्द को मेरी पंक्तियों को वाह वाह कर चले जाएगें मार्मिक लिख देगें पर पढ़ न पाएगा दर्द मेरा कोई,
हे कालों के महाकाल बगीया मेरी उजड़ गई आज कंठ मेरा फिर से भर गया समाज की नजरों में राधा को कृष्ण न मिले फिर भी कृष्ण राधा के ही कहलाए दुख मेरा भी पच जाए यह ज्ञान आप मुझको जल्दी दिलाए
ह्रदय की धड़कन बहुत बढ़ गई थी इसे लिखते एक पल के लिए मैं इस स्थिति में खो गया था शब्दों में बयां करना संभव नहीं है बस मेरे रोम सिहर गए थे पल भर के लिए गलतीयों के लिए माफी चाहते हैं
मैं काली हूँ, मैं काला हूँ कह लोग अक्सर दुखी हो जातें हैं वो काली है, वो काला है कह लोग अक्सर मजाक उड़ाया करते हैं हर किसी को गोरा होना है हर किसी को साफ होना है हमेशा गोरे-काले को तराजू मैं तौला करतें हैं और अहमियत गोरे-साफ रंग को देते हैं बहुत ही अच्छी बात है पर एक सवाल है मन में जो कालिख जमीं है उसका क्या? उसे कब साफ करेंगे? उसके साथ सहानुभूति क्यों? यहाँ पर आकर चुप क्यों हो जाते हो ग़र भेदभाव करते हो तो अच्छे से करो ना उसका मापदंड क्यों बदल देते हो तन को रुप देना तुम्हारे वस में है नहीं मन को रुप देना तुम्हारे ही वस में है पर वह तुमसे होता नहीं
मन की कालिख मिटती नहीं है और चले है तन को गोरा करने देख चरित्र तुम्हारा गिरगिट भी मुस्कुराता है ना जाने यह दोगलापन तुम्हारे अंदर कहाँ से आता है
समझने की जगह जहाँ तुम समझौता करते हो अक्सर मेरे शब्द वहाँ कठोर हो जातें हैं
15 अगस्त 1947 हमें आजादी मिली थी और हर साल हम आजादी का पर्व मनाते है हर घर तिरंगा अभियान हो रहा है ना जाने कब हर मन तिरंगा होगा अंग्रेजों से तो आजादी मिल गई सब खुशीयां मना रहें हैं ना जाने कब हमें बलात्कार से आजादी मिलेगी गरीबी के जकड़न से आजाद होगें भ्रष्टाचार कि दिमक कब हटेगी दुख और चिंता के गर्भ से कब आजाद होगें तिरंगा लहराता है हमारा बड़ा सुंदर लगता है देश हमारा ग़र हो उस तिरंगे पे बैठी सोने की चिड़िया तो क्या खूब होगा नज़ारा देश सोने की चिड़िया तो है पर अफ़सोस हम उस चिड़िया को पींजड़ो में कैद रखे हैं ना जाने कब वो आजाद होगी हर वक़्त हर पल सरकारों पर उंगली उठाते है पर क्या हम कभी खुद पर उंगली उठाते हैं शायद नहीं क्योंकि हम अपने पर दोष क्यों देखेंगे वैसे भी बुराईयां दुसरों में दिखती है खुद में देखने का हिम्मत नहीं है हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन पुरी निष्ठा से शायद ही करते हो पढ़ाई करते वक्त फाकीबाजी काम करते वक्त कामचोरी करते हैं जैसे तैसे नौकरी पाते हैं फिर अपने कुर्सी पर जम कर केवल पगार पाते हैं और वक्त-बे-वक्त बस उंगलियाँ उठाते रहते हैं सच कहूं ग़र मैं तो मेरी नज़रों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही से न करना देश के साथ गद्दारी है ग़र सही से पढ़ेगें नहीं तो देश के प्रति क्या सेवा करेंगे काम में कामचोरी देश के प्रति चोरी क्या देश का किसान समृद्ध है? क्या देश का जवान प्रसन्न है? कह दो ना नहीं है कब तक यह नौटंकी होगी? एक दिन का आजादी का पर्व मनाना और पुरे वर्ष देश को छती पहूँचाना वह भी अपने कर्मों से
मेरी नज़रों में यह 15 अगस्त केवल अंग्रेजों से आजादी का पर्व है दरसल हम सब अभी भी दुख, चिंता, भ्रष्टाचार, गरीबी, व्यभिचार बलात्कार, शोषण, घृणा, जलन इन सब चिंजों से आज़ाद नहीं हुए है और ना जाने कब होगें ह्रदय दुखता है मेरा यह सब देखके इसलिए ना चाहते हुए भी सच को लिख देता हूँ एक उम्मीद लिए कि कास हम सुधर जाए। खैर छोड़ो हर बार कि तरह आप सभी को भी इस स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
बड़ी ही मेहनत से इस देश को आजादी मिली है….ज़रा सी मेहनत हम भी कर अपने ह्रदय को राग-द्वेष से आजाद कर सच्चे अमृत महोत्सव का संकल्प पुरा कर सकते है।
यक़ीनन धागे कच्चे हैं पर रिश्ते बेहद ही मजबूत हैं, क्योंकि बंधन यह तो प्रेम और वात्सल्य से, रक्षा करने के संकल्प से बांधने का पर्व है रक्षाबंधन, बहन भाई को, भाई-बहन को बाप-बेटे को, बेटे बाप को भाई-भाई को, पड़ोसी-पड़ोसी को वृक्ष को, प्रकृति को, समाज को हर कोई हर किसी को रेशम के धागे बाँधें या ना बाँधें पर रक्षा करने का संकल्प से जरूर बांधें क्योंकि जरूरी है समाज को और प्रकृति को प्रेम और वात्सल्य की जो जहर मन में भरा है उसे खत्म कर के ही पर्व मनाना है खुद के बहन के लिए दुपट्टा हो और दुसरो की बहन बिना दुपट्टा के हो यह मुखौटा कब तक…?
यह रक्षाबंधन कुछ बेहद करना है रक्षा करना ही है तो सबका करना है
सुना है, बिल्ली दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीती है, मतलब यही ना एक बार चोट खाने पर ज़्यादा संभालकर चलना चाहिए…! पर हम तो शायद उस बिल्ली से भी गए गुजरें हैं लाख ठोकर खाकर भी नहीं सुधरते हैं हर पल उन खुशियों से खेलते हैं जहां ग़म की कतारें हो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, गुटखा छल, कपट, प्रपंच, धोखा यही सब में अपने आप को लगाए हुए हैं सुनने में और कहने में बहुत अच्छा लगता है पर अमल करने में…… खैर छोड़ो कुछ नहीं……!!!!
किन्नर अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी
Shanky❤Salty
किन्नर….! ईश्वर का प्रसाद हूँ मैं पर लोगों के लिए एक अभिशाप हूँ मैं माँ बाप का अंश हूँ मैं पर तिरिस्कार का वंश हूँ मैं ना महिला ना पुरुष हाँ किन्नर हूँ मैं जब जब खुशियां आती हैं तब तब तालियाँ बजाई जाती हैं पर मेरे तालियों से लोगों के मुँह बन जाता है ना जानें क्यों पराया सा व्यवहार होता है, हूँ तो आखिर इंसान ही ना मैं लड़कियों सा मन है मेरा लड़कों सा तन है मेरा बसते हैं ह्रदय में राम हैं मेरे फिर भी हर पल हर क्षण तिरस्कार की घूंट ही पीती मैं तिल तिल कर जीती हूँ मैं चंद रुपयों के बदले हम आशीर्वाद हैं देतें, दरसल बात रुपये की नहीं है बात तो पापी पेट की है गर मिला होता सम्मान समाज में या मिला होता सामन अधिकार समाज में तो शायद आज चंद रुपयों के खातिर अपमान का घूंट ना पीती मैं, छक्के, बीच वाले, हिजड़े के नाम से ना जानी जाती मैं ग़र घर में खुशियाँ आती हैं बिन बुलाए हम चले आते हैं ना जात देखते हैं ना देखते हैं धर्म बस तालियां बजा कर अपने मौला से उनकी खुशियों किटी दुआएँ करते हैं यक़ीनन बद्दुआएं मिलती है मुझको ,पर देती हर पल दुआएँ ही हूँ मैं आशीष हर किसी को चाहिए हमारी पर कोई माँ हमें कोख से जन्म देना नहीं चाहती है कहते है लोग, हूँ मैं विकलांग शरीर से पर शायद मुझसे घृणा कर अपनी सोच तुम विकलांग कर रहे हो खैर छोड़ो,,, ना नर हूँ ना नारी हूँ मैं संसार में शायद सबसे प्यारी हाँ मैं किन्नर हूँ…..!!!!!
मालिक मोहे अगले जन्म ना औरत करना ना मर्द करना करना मोहे किन्नर ही, मन में ना तो छल है ना है कपट है तो बस प्रेम तोहे से पिया
देखो न राम कभी सम्मान न मिला राम आपकी अयोध्या जी में राम हमारी माँ सीता जी को राम जनक जी ने कन्या दान किया था राम शीश झुकाकर दान लिया था दशरथ जी ने राम फ़िर क्यूँ न मिला हमारी माँ सीता जी को सम्मान राम षड्यंत्रों का शिकार हो वनवास को गई माँ हमारी राम अग्नि परीक्षा तक देनी पड़ी हमारी माँ को राम फिर भी चैन ना मिला आपके अयोध्या वासियों को राम क्या से क्या कह गए आपको राम बन कर राजा रामचंद्र जी आप राम त्यागा हमारी माँ को राम रखा प्रजा का सम्मान राजा रामचंद्र जी ने राम हृदय हमारा रो रहा है राम बन रहा है भव्य मंदिर रामलला का राम दिलवा दो न सम्मान हमारी माँ को राम अपने अयोध्या जी में राम जो प्रेम किया था हमारे प्यारे राम जी ने हमारी माँ से राम वह दिखला दो राम सच कहूं राम कभी सम्मान न मिला राम आपकी अयोध्या जी में राम हमारी माँ सीता जी को राम
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हम सभी को यह लगता है की “मोक्ष” मृत्यु के बाद ही होता है, पर मेरी नज़रों में “मोक्ष” तो जीते जी ही हो सकता है, शायद “मोक्ष” वह स्थिति है जिसमें कोई भी खुशियाँ हमें खुश कर नहीं सकती है और कोई भी ग़म हमें शोक में डुबो नहीं सकता है बस हर पल आनंद ही आनंद हर क्षण उसी एक की ही अनुभूति होना ही “मोक्ष” है, “मोक्ष” एक ज्ञान है, जिस शरीर को हम अपना समझते है क्या वह सदा टिक सकता है…? बस एक झटके में मिट्टी में मिल जाएगा, आग में राख हो जाएगा, इसलिए शरीर के मरने से पहले अपने अहम को मार देना चाहिए, अपने अहंकार को राख कर देना चाहिए बस यही “मोक्ष” है मेरी नज़रों में
श्रीकृष्ण ने कहा है ये श्रीमद्भागवत में ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः मेरा ही वंश है सभी जीवों में। मस्जिद के अजान में कृष्ण ही है ना? मंदिर के आरती में भी कृष्ण ही है ना? उस ब्राह्मण पंडित में भी कृष्ण ही है ना? उस चमार जूता सिलने वाले में भी कृष्ण ही है ना? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः अजान कानों में चुभती थी। मंदिर के घंटों से सिर दर्द होता था। पंडित ठग लगता था। चमार से घृणा होती थी। पडोसी से परेशानी होती थी। ऊँचे जाति से जलन होती थी। नीची जाति से परेशानी होती थी। मन में दो की भावना थी। सच कहूं, तो गीता की पंक्तियाँ ना पता थी। खैर छोड़ो, मैंने बतला दिया ना। अब कृष्ण ही कृष्ण देखो। भरोसा है ना? कृष्ण पर? श्रीमद्भागवत पे? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ना करो राग, ना करो द्वेष, ना करो घृणा गाड़ी में बैठ गए तो गाड़ी नहीं ना हो गए? गाड़ी पुरानी होती है तो कबाड़ में चली जाती है शरीर भी पुराना होगा तो शमशान चला जाएगा। डरते क्यों हो?
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।२३।।४
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं न आग उसे जला सकती है न पानी उसे भिगो सकता है न हवा उसे सुखा सकती है
सब ने कहा है। मेरे कृष्ण ने कहा – बस भरोसा कर जीवन में अपनाना होगा वो साहिब मेरा एक है, कृष्ण के सिवा है ही क्या दुसरा? लिखने वाला भी वही है, और पढ़ने वाला भी वही है
मेरी लिखने का उद्देश्य किसी की भी भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं होता है पर मेरे लिखे व्यंग्य, पंक्तियों से बहुत से लोगों के बीच गलतफहमियां उत्पन्न हो रही है इसलिए अबसे मैं सिर्फ और सिर्फ अपनी डायरी में ही लिखुँगा और किताबों में ही मेरी लेखनी मिलेगी। और कहीं भी नहीं। यह एक अकेला अब थक गया है कोई भी साथी ने हाथ न बढ़या है बस ताने और दो बातों ने मेरे दिल को बहुत जख्मी किया है जितना वक्त मुझे सुनाने में लगाते हो ग़र उसका कुछ वक्त मुझे ज़रा सा सुनने में लगा देते ना तो शायद यह फैसला हम कभी ना लेते यक़ीनन मैं बिना लिखें नहीं रह सकता हूँ पर अब तुम्हें बिना मुझको पढ़ें रहना ही होगा वैसे भी जिसे तुम शैंकी समझ रहे हो ना उसकी आयु कुछ पल कि ही है अंतिम यात्रा के साथ सब कुछ थम जाएगा
पढ़ूंगा सबको पर कहूंगा कुछ नहीं बाँध मुट्ठी मैं आया था खोल मुट्ठी मैं जाऊंगा बस अब मुस्कुरा कर मैं आप सबो को हाथ जोड़ क्षमा चाहता हूँ और अलविदा कहता हूँ
हाल क्या पुछते हो जनाब बेहाल है या खुशहाल है ग़र पता नहीं तो यार क्यों पता नहीं खै़र छोड़ों हम है राम जी के और राम जी हमारे इतना ध्यान रखा करो ग़र हो तुम भी राम जी के तो साथ मेरे रहा करो वर्ना तुम मेरा राम राम स्वीकार करो
आज सुबह जल्दी उठा था मैं नहा-धोकर रामजी की पुजा कर बैठ अख़बार पढ़ रहा था कि तभी एक फोन आया और कुछ काम से बाहर जाना हुआ मेरा काम खत्म कर घर आ ही रहा था की रास्ते पर शनि मंदिर पर नज़र पड़ गईं, सोचा, चलो हो आते हैं सालों बाद आज शानि मंदिर में प्रवेश कर ही रहा था की तभी बाहर मुझे कुछ भिखारी दिखे, बड़े ही मासुमियत से कहे रहे थे वे “कुछ दे दो मालिक भगवान भला करेगें आपका“ इतने में ही किसी सज्जन व्यक्ति ने तड़ाक से कह दिया “मेहनत-वेहनत करो यार ,क्या भीखा माँगते रहते हो“ और इतना कह अंदर मंदिर चल दिए, मैं भी पीछे-पीछे गया उनके, उनको देख मैं दंग रह गया हाथ फैला कर कह रहे थे शनि महाराज से “बिटिया की शादी नहीं हो रही है ज़रा कुछ करो महाराज, बेटा का नौकरी जल्दी हो जाए शनि महाराज कृपा करो, मेरे धंधे में बरकत दो महाराज बरकत दो“ इतना कह हाथ जोड़ लिए और शनि महराज के पाँव पर गिर गए फिर उठ कहते है “ऊँ शनैश्चराय नमः ऊँ शनैश्चराय नमः ऊँ शनैश्चराय नमः“ फिर प्रणाम कर मंदिर से बाहर आयें और भिखारियों को दो-दो रूपये के सिक्के देकर मेहनत करने की नसीहत दे चलते बने, यह देख मैं हसता हुआ मंदिर के अंदर गया तो देखा शनि महाराज जी भी मुस्कुरा रहे थे और शायद कह रहें हों धन्य हो, हे मानव ! तुम-री लीला तुमनें इतनी जल्दी रंग बदला की गिरगिट भी तुझको देख अपनी हरकत भुला
Written by:- Ashish Kumar Modified by:- Ziddy Nidhi
लोग समझते है कि ग़र पास पैसा हो तो सबकुछ पास होता है पर वास्तविकता यह नहीं है जब तक पास पैसा होगा आपके पास कुछ नहीं होगा
आपके हाथों से पैसे जाएगें तब ही चीज़, वस्तुएँ पास आएंगीं पैसे देकर ही हम कुछ हासिल कर सकते है पैसे पास रखकर हमें सिर्फ ग़म कि कतारें ही मिलेगी बिना पैसे दिये विद्या नहीं मिल सकती स्कूलों में बिना पैसे दिये अन्न नहीं मिल सकता है
फिर भी लोग सोचते है पैसे होंगे तब हम सुखी होगें
दरसल हालात ऐसे है कि रोशनी होते हुए भी हम आँखें बंद कर लेते है और कहते है अंधियारा है
परिस्थिति अनुकूल हो तो सब आजु-बाजू ही नज़र आते है पर जब परिस्थिति विकट हो तो निकट नज़र कोई नहीं आता है परेशान था मैं, कुछ अनुकूल ना था हाँ मेरा व्यवहार भी कुछ पल के लिए प्रतिकूल था कमरे कि बिखरी चीजों में तुम्हें खोजता था यकिनन मेरे पैर अब लड़खडाते है आँखों से भी कम नजर आता है धड़कनों का तो तुम्हें पता ही है लिखना तो छूट रहा है अब हर किसी से मेरा रिश्ता टूट रहा है अब ऊंगली मुझको नहीं उठानी है वक्त, हालात और तुम पर हाँ गलती मेरी ही है और गलत भी मैं ही हूँ लगाम मेरी नहीं थी ज़ुबां पर इसलिए तो हर कोई ख़फ़ा है मुझ पर क्या लेकर आया था मैं और लेकर क्या जाऊँगा मैं चार दिन की ही है ज़िन्दगी ना तो भीड़ साथ जाएगी और ना ही तुम ठीक है मेरी आवाज अच्छी थी मेरी कुछ हरकतेें अच्छी थी हाँ यार वो सब था पर अब नहीं खैर छोड़ों ये सब बातें स्वास्थ्य तो जा ही रहा है साथ ही धन दौलत भी अब तो मैं चलता हूँ हो सके तो तुम आ जाना ग़र नहीं तो अंतिम यात्रा कि ख़बर मिल ही जाएगी हाथ जोड़कर ही कहता हूँ साँसें है तब तक ही साथ रहो ना साँस रूकते ही मैं यादें बन तुम्हारे साथ रह लूंगा ना
दो दोस्त मिलते हैं तो क्या होता है? चुगली होती है तीसरे की 😆 पर जब दो लेखक मिलते है तो सिर्फ किताबों कि ही बात होती है चाहे वो मंजुर नियाज़ी साहब की हो या हो कबीर जी की बातें नालंदा विश्वविद्यालय की बातें हो या हो मगध विश्वविद्यालय की बातें राम जी की भी बातें और अल्लाह की बातें भी केदारनाथ की बातें और अमरकंटक के नर्मदा की भी बातें…… बातें है खत्म कहाँ होती है……? जब निकलती है तो बहुत दुर तक जाती, उम्र में तो हम माँ बेटे जैसे हैं हकीकत में खून का रिश्ता नहीं, पर हाँ हैं तो हम दोनों ही उसी ब्रह्म के संतान……. कहतीं तो वो मुझको बेटा है और मैं उन्हें आण्टी कुछ लोग कहते हैं वो आण्टी नहीं माँ जैसी लगती हैं तो कुछ कहते किसी जन्म की माँ जरूर होगीं वो मेरी, पर जो भी हों, हैं तो मेरी सबसे प्यारी आण्टी जी, हर रिश्ते में स्वार्थ देखा पर यहाँ सिर्फ निस्वार्थ और निश्छल प्रेम ही छलकता देखा है, दोनों के उम्र में इतना फर्क है और मिले भी पहली बार हैं पर अपनापन सा महसूस होता है पता ही न चला वक्त कब बित गया, कुछ मिठाईयाँ और चॉकलेट ही लेकर गया और आपने भी कुछ पैसे दिये पर वह सब तो वक्त के साथ खत्म हो जाएगा लेकिन आपका वात्सल्य और माधुर्य प्रेम तो मेरे साथ आशीर्वाद बन कर भी हमेशा रहेगा चाय तो जल्दी पीता नहीं था पर आपके साथ चाय पर चर्चा भी हो गई पेट भरा था फिर भी आपके साथ खाना खाने की किस्मत राम जी ने लिख ही दिया था……. बात तो हुई हरिणा दीदी के बारे में, मधुसूदन अंकल, कुमूद दीदी, निधि दीदी, प्रीति, वर्मा अंकल, पदमा-राजेश आण्टी की बातें राम जी की भी बातें, हरि नारायण की भी बातें हुई शंकर से नर्मदा का कंकर तक मृत्यु से मोक्ष तक जीवन से जीवन जीने की कला तक बस माँ भवानी की कृपा हम दोनों पर बनी रहें सच में आपसे मिलकर जितनी खुशी हुई उतनी खुशी और कभी किसी से भी मिलकर नहीं हुई थी आप स्वस्थ रहे और हमेशा लिखते रहें
हनुमान चालीसा हर किसी को पढ़ना है किसी को घर में तो किसी को रोड़ पर तो किसी को मस्जिदों के सामने तो किसी को मंदिरों में इसके घर के बाहर तो उसके घर के बाहर बड़ी बड़ी रैलियाँ निकालनी है पर किसी को भी हनुमान जी की तरह वाणी में विनय नहीं रखना है ह्रदय में धैर्य नहीं रखना है सदाचार रख नहीं सकते ब्रह्माचर्य का तो नामों निशान नहींं है है तो है बस चित में राग और द्वैष खैर छोड़ो हनुमान चालीसा हर किसी को पढ़ना है
मंदिर गए थे कुछ लोग हाँ भीख माँगने ही देखा था मैंने उन्हें माना कि हाथ में कटोरा ना था पर नियत में भीख ही थी अमर होने कि भीख माँग रहे थे यह देख राम जी मुस्कुरा रहे थे और मुस्कुराए भी तो क्यों नहीं राम जी ने ही तो द्वापर युग में कृष्ण रूप में आकर मानव मात्र के लिए जब गीता का ज्ञान दिया अर्जुन को तो उन्होंने स्पष्ट कहा था
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सूखा सकती है।
स्पष्ट है, तुम तो हमेशा से ही अमर हो फ़िर भी कटोरा लेकर भीख क्यों? अज्ञान से या नासमझी से या मुर्खता से?
जब माँग रहे हो राम जी से तो राम जी को माँगो ना। यह चिटपुटिया चीजें क्यों माँगोंगे?
हाथ पर गीता रख कसमें नहीं खानी चाहिए। हाथ में गीता लेकर उसको पढ़ना चाहिए।
गाड़ी में बैठ गए तो गाड़ी नहीं बन जायेंगे। घर में बैठ गए तो घर नहीं बन जायेंगे। मेहेंदी का पत्ता दिखता हरा है पर वास्तविक में तो लाल है। कब पहचानोगे अपनी लाली को??? अपनी यात्रा को सच में अंतिम कर लो नहीं तो जिसे अंतिम यात्रा कहते हो ना दरसल हकीकत में वो अंतिम होती नहीं।
Hope you are not fine😁 If you are fine then I’m sure you all forgot me😅 Btw, come to the point. I’m planning for my 11th book named as “My Last Journey” Totally based on death. How we welcome A newborn body To The last farewell of a body.
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तुम मिलो या ना मिलो पर तुझे पाया है तो पाया है मैंने, ना तो इश्क़ की बात करेंगे और ना ही इबादत की, हम बात करेंगे तो सिर्फ और सिर्फ तेरी ही बातें
ग़र मिल जाते तुम तो फ़िदा ना होते हम, ये अल्फ़ाज़ तुम्हारें ना होते जो हम आज लिख रहें हैं, आँखों से आँसू युंही न छलकते, तुझको ही पुकारूँ, ग़र मिल जाते तुम तो फ़िर किसपे हम मरते
होलिका में लकड़ी जलेगी फेरे लेतें फिरोगें पर हमारा अहम कब जलेगा….? राम जी के लिए मन का मनका कब फिरेगा…? पापिन, अविद्या कब मिटेगी….? अहंकार को राख होते कब देखेंगे….? होली में लाल हो या हो पीली हम उसी रंग में रंग जाते हैं वो कहते हैं लाल ना रंगु ना रंगु पीली पीया मोहे अपने ही रंग में रंग दो ना रंग दो ना…. सच में राम जी ज्ञान के रंग में रंग दो ना ऐसा रंग में रंग दो जिससे सब कुछ राम राम राम राम ही दिखे नहीं देखना है मुझको जात, धर्म, मजहब, रंग भेद की मूरत ऐसा रंग दो कि वो रंग कभी उतरे ना यह होली आपके साथ होली राम जी आपके साथ हो’ली’ राम जी
मेरी एक दोस्त है, नाम है उसका रिया है तो मेरी सबसे अच्छी दोस्त लेकिन Attitude है उसके अंदर बहोत। फिर भी जैसी भी है, अच्छी है मेरी दोस्त। चलो चलते है दुसरे दोस्त पर नाम है उसका Samar वो है मेरे क्लास का मोनीटर सब पर रोब जमाता है, आता है कुछ भी नहीं फिर भी, अपने आप को smart समझता है जब क्लास में टीजर नहीं हो वो भी Attitude दीखता है। लेकिन फिर भी, मेरा सच्च दोस्त कहलाता है। अब आता है तीसरा मित्र उसका नाम है Shanky मैं उसे चिढ़ाती हूँ snaky-snaky-snaky जब भी उससे बातें करू मुझे परेशान करता है, है मेरा सबसे प्यारा दोस्त। दीदी दीदी बुलाता है। ~ Imrana!
Thanks For Reading
A Lovely poem written by my Cute-cum-Funny Imrana Didi✨❤ Please give your views in the comment box about this poem.
बैठा हूँ भीड़ में ही पर रूठी है भीड़ मुझसे किरदार हज़ारों हैं पर ख़ामोशी नहीं मुझमें बस मौन हूँ मैं हस हस कर ज़िन्दगी काट रहे हैं वो आखिर कब तक हम भीड़ में जियेगें
यात्रा तो अकेले ही करनी है बेशक अंतिम यात्रा में भीड़ तो होगी पर केवल शमशान तक ही उसके आगे की यात्रा में क्या वो भीड़ साथ निभाएगी???
रूपये, पैसे, धन, दौलत, दिमाग खर्च कर के वो नहीं मिल सकता है जो आपने महाशिवरात्रि की रात्रि में दिया है। धन्यवाद सदाशिव शंभू धन्यवाद🙏💕
चारों प्रहर में पुजा हुई आपकी दुध से, दही से, धी से, मधु से विल्वप्रत्र से, जल से, चंदन से पर शंभो यह चिज, वस्तु आपके शिवलिंग स्वरूप में टिक न सकी पुष्प मुरझा गए, दुध, दही, जल तो बह गए जो भी अर्पण की सब उतर गया शंभू बस आप थे, हैं और सदा रहेंगे ठीक वैसे ही हम भी है शंभू गाड़ी में बैठ गए तो खुद को गाड़ी नहीं मानते हैं घर में रहते हैं तो खुद को घर नहीं मानते हैं जग को देखा था अब तक शंभो पर आपने तो उसे ही दिखा दिया जिससे सारा जग है सुख-दुख सपना है केवल शंभू ही अपना है ना तो अन्न लिया ना लिया जल पर शंभू ने जो दिया है उसे शब्दों में बयां करना संभव नहीं है तृप्त कर अनहद नाद दिया है
देखा है मैंने भाँग पीने से नशा चढ़ता है ठीक उसी प्रकार तेरा नाम मेरे अंतः में बसता है पर तेरी सौगंध खा कहता हूँ मैं भोले बाबा के नाम से ही सारी ज़िंदगी सुधरता है
“गीता” यह तो माँ है, माँ! शरीर रूपी माँ नहीं आत्म रूपी माँ है ज्ञान रूपी माँ है
थके, हारे, गिरे हुए को उठाती है बिछड़ों को मिलाती है भयभीत को निर्भय, निर्भय को नि:शंक नि:शंक को निर्द्वन्द्व बनाकर नारायण से मिला के जीते जी मुक्ति का साक्षात्कार कराती है मेरी माँ “गीता”
ऐसा पढ़ा है मैंने,, श्री कृष्ण के मुख से निकली है “गीता” श्री विष्णु का ह्रदय है “गीता”
परन्तु, वास्तव में “गीता” तो किसी मजहब, पंथ, समुदाय, जाती, धर्म, विषेश का नहीं है बल्कि यह तो जीवन जीने की कला है जिस तरह रोता हुआ बच्चा माँ की गोद में आकर चुप हो जाता है वैसे ही “गीता” माँ को पढ़ कर हर बच्चा, बुढ़ा, जावन अपने आप को निश्चित कर सकता है
578 भाषाओं में “गीता” का अनुवाद को चुका है जिसका भी मन है पढ़ने को वो किसी भी भाषा में “गीता” को पढ़ सकता है मैं आज “गीता जयंती” पर शुभकामनाएं क्या दुंगा आप सब को…….बस करबद्ध प्रार्थना है 24 घंटे में से मात्र 24 ससेकेंड “गीता” रूपी माँ के गोद में बिताए। मैं तो इतना विश्वास से कह सकता हूँ कि विश्व में “गीता” के समान कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है
मेरे चरित्र पर उँगली उठाए जाते हैं आँखों से मेरे कपड़े भी उतारे जाते हैं मैं जंगल में जितना जानवरों से नहीं डरती उतना तो रोड़ पर घुमते मानव रूपी दरिन्दों से हूँ डरती
मेरे सीने को देख कभी किसी ने आम कहा, तो किसी ने संतरा कहा, किसी ने उसे छुना चाहा, तो किसी ने उसे नोचना चाहा, सड़ जाते मेरे ये दो फल तो अच्छा होता हर किसी को चाहिए होता है यह फल
सोशल मीडिया में अपने मेसेजस चेक करो तो जितने भी अंजान मेसेज हैं उन सब को उतसुकता है मेरे जिस्म का नाप जानने की कितने बड़े है मेरे फल? उम्र क्या है मेरी? साथ चलोगी तुम मेरे? मेरे साथ सोउगी? मैं तुम्हें खुश कर दूंगा कितना लोगी? कितने यार है तेरे? हर पल चिंतित रहती हूँ मैं
हाँ मैं लड़की हूँ!
किसे अपनी व्यथा सुनाऊँ? अपने दोस्तों से कहती हूँ तो उन्हें मुझसे ज्यादा इस तरह के मेसेजस और कमेंटस आतें हैं
चौदह साल का लड़का भी पीछे पड़ा है साठ साल का बुढ़ा भी साथ सोने के लिए मर रहा है साथ काम करने वाला बंदा भी मौके के फिराक में बैठा पड़ा है
हाँ मैं लड़की हूँ!
माना कि गलती मेरी थी छोटे कपड़े मैंने पहने थे पर उनका क्या जिन्होंने हिजाब पहनना था? तुमने तो अपनी आग में नवजातों को भी नहीं छोड़ा था
कहूँ तो क्या कहूँ मैं लिखूँ तो क्या लिखूँ मैं स्तन ही तो था जिससे दुध निकलता था ऐसा दुध जिसे न तो गरम करना पड़े और न ठंडा जैसा है वैसा ही अमृत तुल्य है उस स्तन से निकल दुध को पीकर तुम बड़े हुए थे और आज उस स्तन को ही नोचने पर आदम हुए हो?
हाँ मैं लड़की हूँ!
नहीं, नहीं मैं तो खिलौना हूँ मेरे जिस्म को नोचना दरिंदो का काम मेरी आत्मा के मसलना अपनों का काम
एक महिला को स्तन कैंसर हुआ था उन्होंने राम जी को धन्यवाद देते हुए “शर्म के दो पहाड़” कविता लिख दी थी कहा था उन्होनें “अब तुम पहाड़ पर उंगलियाँ नहीं चढ़ा पाओगे, जिस पहाड़ से दूध की धार बहती थी अब वहाँ से मवाद बहतें हैं, अब पहाड़ के जगह समतल मैदान बचें हैं।”
दरिंदों ने दर्द इतना दिया की अब वे दर्द में भी खुश है।
हैलो हरिणा दीदी,🤗 आज आपका जन्मदिन है। 😍 लेकिन ना तो मैं आपको आज गिफ्ट दे पाऊँगा।😔 और ना ही आप मुझे पार्टी दे पाएंगे।😒 लेकिन फिर भी 15 दिन पहले से ही आपके जन्मदिन के लिए मैं उत्साहित था। 🥳 क्या करूँ ? क्या करूँ ? के चक्कर में कुछ भी नहीं कर पाया। 😑😣 लेकिन कोई नहीं दीदी जल्दी ही आप सात समंदर पार आओगे फिर बहुत सारा गिफ्ट्स दुंगा😇 और पार्टी भी आपसे लूंगा।🥰 आप तक पहुँचने का सबसे अच्छा और एक ही जरिया है, आपकी लिखी किताब “जीवन के शब्द“
पता नहीं क्या लिखूँ मैं आज दीदी, ना कोई राज है, और ना ही कोई ख़्वाब है बस एक चाहत है🙏 आप जहां भी रहें 🤗 चेहरे पर मुस्कान बना रहे 😁 जरुरी नहीं की हम रोज ही बात किया करें 🥺 बस जितना भी बात करें आपसे वो यादें हमेशा ताजा रहें 🤩 और जल्दी से आप इस साल 5बुक पब्लिश करें 🥳 ताकि उसे मैं अपने बुक सेल्फ में जगह दे सकुं “ख़लील जिब्रान” ने कहा था ना दीदी “साथ होने के लिए हमेशा पास खड़े होने की ज़रूरत नहीं होती।“ बस राम जी से एक दुसरे के लिए प्रार्थना ही काफी है🙏 खैर ! जो भी हो मेरी बक-बक तो रुकेगी नहीं🙈 इसलिय हरिणा दीदी आपके जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं 🥳 बस मस्कुराते रहे🤗 सारी अलए-बलाए दूर खुद-ब-खुद हो जाएगीं 🙏
When I write, I always feel your presence With your fragrance In my breath Don’t know why I smile With some tears Seriously, I don’t know This is our memories or your love
The Flowers of Faith Who Grew on the Tree of Love, Broke Several Times in Anger, Lost Between Leaves of Issues, Trample Down Under Misunderstandings. Still… Don’t Know How?? Habitually a New Flower Every Time Bloomed…
स्त्रीमन एक कविता संग्रह है, जो स्त्रीयों के विचारों को दर्शा रही है। इसमें सभी उम्र और वर्ग की औरतों की सोच को ध्यान में रखा गया है।
इस किताब की यह बात अच्छी है की इसमें औरतों की सभी तरह की भावनाओं को प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है जैसे चिंता, बंधन, प्रेम, दुखः, महत्वकांक्षा, जोश और समाजिक सोच का उनपर असर। कुछ कविताएँ तो ऐसी भी हैं जिनको पढ़ कर सब दृश्य चलचित्र की तरह आंखों के सामने चलता अनुभव होता है। ऐसी कुछ कविताओं में मेरी पसंदीदा हैं- स्त्री-मन, वैश्या और बोझ। पर इस पुस्तक में मुझे सबसे अच्छी वो कुछ कविताएँ लगीं जो किसी भी महिला को जोश से भर देने के लिए काफी हैं, जैसे- तू चलती रह, नारी हूँ आज की हूँ, वो योधा है। इस पुस्तक में माँ और बच्चे के रिश्ते पर भी कुछ एक कविताएँ हैं। और बहुत सारी ऐसी कविताएँ भी हैं औरतों के घुटन और सामाजिक और पारिवारिक बंधन को दर्शा रहीं हैं जैसे- कभी बेचारी, रूह मेरी, चमकता आकाश, असमानता। कुछ कविताएँ प्रेम विरह पर भी हैं जिनमें मुझे सबसे अच्छी लगी- मैं अजीज नहीं।
मेरी तरफ से यह एक बेहद असाधारण एंव बेहतरीन कविता संग्रह है जो अपने पुस्तक शीर्षक को बहुत अच्छे तरीके से सार्थक करती है।
इसलिए मैं अपनी रेटिंग इस पुस्तक के लिए 5 star देना चाहूँगा।
उम्मीद है मेरी तरह बाकी पाठकों को भी यह किताब पसंद आयेंगी और मेरी यह समीक्षा उन्हें सही मार्गदर्शन देंगीं।
और सभी से अनुरोध भी करता हूँ कि किताब को एक बार जरूर पढ़ें।
First of all, I bow my gratitude to God, who has inspired me to write, I thanks to my mother “Pramila Sharan” and father “Shatrughan Sharan“. Because without his grace I would not exist.
I am grateful to those writers-readers and critic bloggers, who helped me in my writing.
I also thank Radha Agarwal Ji and Nidhi Gupta “Jiddy”. I would like to thank those who helped me and did proof reading of it and made my words beautiful.
The help that Sachin Gururani did in making the cover page of my book I thanks them wholeheartedly.
Apart from this to all those who have helped me directly or indirectly.
This book is a Journey of Old Age Home to Orphanage Home in a poetic manner.
This book is written for the mature reader. It’s purpose is not to hurt anyone’s feelings. It is written in the favor of every person, society, gender, creed, nation or religion. These are the author’s own views. Hope that by reading this book, you will try to understand and appreciate the author’s point of view. It is merely an attempt to portray social reality. The aim of the book is to promote peace, non-violence, tolerance, friendship, unity, prosperity, happiness and integrity.