बलि बकरे की, या किसी चिज वस्तु की या अपने अहमं का बलि देना है
विदाई क्या माँ हम सबसे विदा लेती है? मेरी नज़रों में असंभव सा लगता है हाँ, हम विदा ले सकते हैं हम जुदा कर सकते हैं अपने मन और बुद्धि को माँ से लेकिन माँ हमेशा मेरे साथ है और रहेगी इसके तनिक भी संदेह नहीं है
कुपुत्र का होना संभव है लेकिन कहीं भी कुमाता नहीं होती
राम ने सब कुछ त्याग कर शांति का मार्ग बताया है पर क्या तनिक भी त्याग है हम में है? ग़र भुल से कही कुछ त्याग भी दिया तो सरेआम ढ़िढोरा पीटने की बिमारी भी है जब तक चित में त्याग नहीं होगा तब तक चित में शांति नहीं होगी क्योंकि शांति वही होती है जहां कुछ ना होता है चाहे वो बाजार हो या हो मन
मेरे राम ने शस्त्र से पहले शास्त्र उठाया था तब जाकर शस्त्र का उन्होंने सही ज्ञान पाया था युं हीं नहीं राम ने श्रीराम का ख़िताब पाया था
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ खयालों की मोटरी बाँध चलती हूँ ह्रदय में एक आस लिए जीती हूँ यूँ हीं नहीं चलती हूँ अक्सर थक कर दिवारों का सहारा ले कर बैठ जाती हूँ रोना तो चाहती हूँ पर घूंट कर रह जाती हूँ साँसें तो चलती है पर लगता है ज़िन्दगी थम सी गईं है बस ह्रदय में एक आस है पर हकीकत में कोई भी नहीं पास है ग़म के आँसू सुख चुके हैं मन की प्यास भी शायद बुझ चुकी हैं मंज़िल तक तो जाना है पर रास्ते कब खत्म होगें पता नहीं थक तो गई हूँ पर जताना नहीं चाहती कोई समझने को तैयार नहीं जब कहती हूँ कुछ तो हर कोई कह जाता है हाँ मालुम है मुझको सब कुछ पर मालूम होना ही सबसे बड़ा ना मालुम होना है कोमल सा दिल था जिसकी कोमलता को खत्म कर कठोर कर दिया गया विसवास के डोर में बाँध कर फाँसी का फंदा दिखा दिया प्यार दिया या दिया दर्द पता नहीं पर दिया कुछ तुने यह पता है शायद वह है अनुभव अब जादा फरमाइश नहीं है बस जो होता है शांति से सह जाती हूँ ना तो हूँ मैं राधा ना चाहत है मोहन की हूँ मैं एक इंसान बस हर किसी से इंसानियत की उम्मीद लगाए बैठती हूँ
दर्द लिखूँ या लिखूँ मैं अपनी हालात बेचैनी लिखूँ या लिखूँ मैं वो कसक, आँखों के काले आँसूं बहे थे जब तुम मुझे छोड़ गए थे हाँ तुम्हारे नाम का काजल लगाया था वो बह गए थे तुम्हारे जाने की खबर से काँच की चुड़ियाँ जो पहनी थी वो तोड़ दी गई थी हकीकत में मुझे काँच की तरह तोड़ दिया गया था, तेरे जाते ही जलते दीये को राम जी ने बुझा दिया था मेरा सुहाग उजाड़ दिया था विधवा नाम मुझको दिया गया माँग से सिंदूर पोछ दिया गया जो तेरे नाम के नाम मैं लगाया करती थी, मैं रोती नहीं क्योंकि आँसू तो सूख गए मेरे तुम मुझसे रूठे थे या किस्मत मेरी फूटी थी पता नहीं पता तो बस इतना है जीवन मेरा बस अब अकेला है जीवन साथी ने साथ सदा के लिए छोड़ा है,
दो चिड़ियाँ दिखाई थी तुमनें और कहा था यह हम दोनों हैं पर देखो ना वो दोनो तो आज भी साथ है पर तुम क्यों नहीं हो मेरे साथ कहाँ उड़ गए तुम? मेरी नींद तुम उड़ा ले गए जब से तुम सदा के लिए सोए,
आज भी मुझे याद है जब से सुहागन हुई थी मैं कहते थे लोग निखर गई हूँ मैं पर तुम्हारे जाते ही बिखर गई हूँ मैं
छन-छन पायल की आवाज से घर गूंजा करते थे अब मेरी चीखों की आवाज से मेरा मन गूंजा करता है तुम्हारी जान थी ना मैं आज बेजान हो गई हूँ मैं,
तुम्हारा होना और तुम्हारा होने में होना बस दिल को तसल्ली देने वाला है
विधवा हूँ मैं तिरस्कार की घूंट पीती हूँ मैं श्रृंगार के नाम पर सिहर जाती हूँ मैं सहारा नहीं मिलता बस सलाह ही मिलती है अछुत सा व्यवहार होता है शुभ कर्मों से हटाया जाता है विधवा कह कर बुलाया जाता है
कोई झांकने तक नहीं आता है ना दवा देता है ना देता है जहर बस ताने ही मिलें हैं बस तड़पता छोड़ जाता है तेरे जाते ही घर का चुल्हा बुझ गया था पर ह्रदय में आग लग गई थी कहते हैं लोग मैं तुम्हें खा गई हूँ
रात लम्बी होती है पर हकीकत तो यह है मेरी ज़िन्दगी अब विरान हो गई है मरूस्थल-सी हो गई है बस काँटें ही रह गए है फूल तोड़ ले गया कोई जात मेरी विधवा हो गई,
बैठ चौखट पर तुम्हारा इंतजार करूँ मैं प्रियतम आओगे ना तुम अब कभी पर आए है मेरे आसूं तुम्हारी याद में ले गए खुशियां तुम मेरी ले जाते तुम भी मुझको सती सी जलती मैं भी चिता के साथ तुम्हारी ज़िंदगी में नज़रें लग गए मेरी हँसती खेलती ज़िन्दगी लुट गई मेरी
सूरज की लाली देख मुस्कुराती थी मैं आँखें अब भी लाल ही रहती हैं मेरी पर मुस्कुराती नहीं हूँ मैं वो तो बस कहने की बात थी सात जन्मों के लिए मैं तुम्हारी थी हकीकत में तो मैं असहाय थी मेघ भी बरसे सूरज भी चमके पर तुम्हारी तुलसी सूखी ही रह गई तेरे जाने के बाद
तुम्हारे बाग की फूल थी मैं जो बिखरी पड़ी है समाज के कुछ कुत्ते नज़र डालते है तन का सुख देने की बात करते हैं मेरे मन को कचोटतें हैं लोग कहते थे दुख बाँटने से कम होता है पर मेरा दुख तो एक बहाना है दरसल उन्हें मेरे साथ बिस्तर पर सोना है ह्रदय बहुत रोता है मेरा हाथों में तुम्हारे नाम की मेहेंदी लगाई थी मैंने मेहेंदी की लाली चली गई और तुम भी हाथों की लकीरों से चले गए,
इश्क़ मुकम्मल ना हो तो लोग रोते हैं मरने की बात करते हैं ज़रा मुझको भी बतलाओ ना मैं करूँ तो क्या करूँ ह्रदय तो है पर धड़कन नहीं है जिस्म तो है पर जान नहीं है दर्द तो इतना हैं की शब्द नहीं है बयां करने को भला कोई क्या समझे मेरे दर्द को मेरी पंक्तियों को वाह वाह कर चले जाएगें मार्मिक लिख देगें पर पढ़ न पाएगा दर्द मेरा कोई,
हे कालों के महाकाल बगीया मेरी उजड़ गई आज कंठ मेरा फिर से भर गया समाज की नजरों में राधा को कृष्ण न मिले फिर भी कृष्ण राधा के ही कहलाए दुख मेरा भी पच जाए यह ज्ञान आप मुझको जल्दी दिलाए
ह्रदय की धड़कन बहुत बढ़ गई थी इसे लिखते एक पल के लिए मैं इस स्थिति में खो गया था शब्दों में बयां करना संभव नहीं है बस मेरे रोम सिहर गए थे पल भर के लिए गलतीयों के लिए माफी चाहते हैं
बाप मेरा खुद्दार था इसलिए मेरे घर का हाल दुश्वार था डोली उठ नहीं रही थी घर में भीख देने के लिए दहेज नहीं था इसलिए अर्थी मेरी उठ रही है ना जाने क्यों मेरी अर्थी के पीछे बारात उमड़ पड़ी हैं
माँ मेरी अनपढ़ थी मेरी लाल आँखों को पढ़ हाल जान जाया करती थी इश्क़ की जब भी बात होती है ना जाने क्यों माँ ही याद आती है हाथों की लकीरों में क्या लिखा पता नहीं ग़र सर पर माँ का हाथ हो तो ज़िन्दगी में कोई शिकवा नहीं दो वक्त की रोटी तो तुम जरूर कमाओगे पर माँ के हाथों का प्रेम कहाँ से लाओगे फुर्सत के दो पल खोज तुम माँ को फोन घुमाया करो तुम वर्ना एक दिन ग़र गुम हो गई माँ तो आँखों में आँसू लिए सर के सिरहाने तकिये में माँ के गोद खोजते फिरोगे ना जाने क्यों माँ का दिल दुखाकर अपने किस्मत के दरवाजे बंद करते हो माना कि धन दौलत बहुत है तुम्हारे पास पर असली संपत्ति माँ को क्यों भूल जाते हो वक्त है अभी भी माँ कि ममता और करूणामयी शीतल छाया पाने का देर मत करना तुम नहीं तो उसके जाते ही पल-पल के मोहताज होते फिरोगे
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पुरे विश्व में बहुत ही प्रेम से और धुम धाम से मनाया जा रहा है हर कोई अपनी भक्ति, प्रेम और माधुर्य श्रीकृष्ण के समीप रख रहा है बड़े सुंदर तरीके से मनमोहक तरीके से मंदिरों को, श्री कृष्ण की मुर्ति को सजाया जा रहा है पर इन सब से परे एक सवाल मेरे ह्रदय में है श्रीकृष्ण कि मुर्ति से इतना प्रेम है तो फिर श्रीकृष्ण के बनाए हुए इंसान रूपी मुरत से ईर्ष्या, राग, द्वेष, घृणा क्यों? श्रीकृष्ण को छप्पन भोग और बगल में बैठे इंसान को छप्पन गालीयां श्रीकृष्ण के लिए गुलाब और बगल में बैठे इंसान को गुलाब के कांटे सच कहूं तो मुझे लगता हैं श्रीकृष्ण के फोटो से, मुर्ति से लोग प्रेम बस दिखावे के लिए करते हैं ग़र कल को गए श्रीकृष्ण हम सबसे माँगना शुरू कर दे तो उनके समिप हम में से कोई नहीं जाएगा ये प्रेम ये भक्ति में से हमें स्वार्थ कि दुर्गंध आती है ह्रदय में जलन भरा है, छल से लिप्त है कपट का चादर ओढ़ा है ग़र नहीं तो यह बात समझ आ जाती श्रीकृष्ण ने कहा था “हे अर्जुन! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ और मैं ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति का कारण हूँ” फिर भी बगल वाले से घृणा श्रीकृष्ण को घी मे भोग और बगल वाले को पानी का प्रसाद श्रीकृष्ण को काजू, बादम और बगल वाले को सिर्फ किशमिश ये कैसी भक्ति हुईं इतना द्वेष कब तक और किससे मन कि मैल धो दो मुख से श्रीकृष्ण कहो या ना कहो पर ह्रदय से श्रीकृष्ण के सिवा कुछ नहीं कहो खाओ तो श्रीकृष्ण के लिए खिलाओ तो श्रीकृष्ण के लिए उठो तो श्रीकृष्ण के लिए बैठो तो श्रीकृष्ण के लिए श्रीकृष्ण को आपके रुपये पैसे कि जरूरत नहीं है सब कुछ दीन्हा आपने भेट करू क्या श्रीनाथ नमस्कार की भेट धर जोडू दोनों हाथ
ह्रदय में कृष्ण भी है और कंष भी बस फर्क इतना है कि हम महत्व किसे कितना देते हैं
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है और उस राष्ट्रपुरुष के परम स्नेही सुपुत्र मेरे प्यारे अटलजी है ठन गई! मौत से ठन गई! वास्तविकता में मौत को मात दिया था स्वतंत्रता दिवस के दिन झुकने न दिया था मेरे प्यारे अटलजी ने भारत रत्न से शुशोभित थे तन था हिन्दू मन था हिन्दू जीवन ही था उनका हिन्दू रग-रग माँ भारती को था समर्पित आपकी पुण्यतिथि पर लिखूँ तो क्या लिखूँ मैं हर शब्द आपसे है और आपसे ही हम हैं करूँ तो क्या समर्पित करूँ मैं आपको यकीनन आपका शरीर हमारे बीच हैं नहीं पर आपकी सोच को हमें हर दिल में जिंदा रखना हैं आपको याद कर आज भी आँखें नम़ हैं और मेरे ह्रदय में ज्वार उठ आया है ब्रह्मचर्य का पालन कर मेरे अटलजी ने किचड़ में कमल खिलाया है
15 अगस्त 1947 हमें आजादी मिली थी और हर साल हम आजादी का पर्व मनाते है हर घर तिरंगा अभियान हो रहा है ना जाने कब हर मन तिरंगा होगा अंग्रेजों से तो आजादी मिल गई सब खुशीयां मना रहें हैं ना जाने कब हमें बलात्कार से आजादी मिलेगी गरीबी के जकड़न से आजाद होगें भ्रष्टाचार कि दिमक कब हटेगी दुख और चिंता के गर्भ से कब आजाद होगें तिरंगा लहराता है हमारा बड़ा सुंदर लगता है देश हमारा ग़र हो उस तिरंगे पे बैठी सोने की चिड़िया तो क्या खूब होगा नज़ारा देश सोने की चिड़िया तो है पर अफ़सोस हम उस चिड़िया को पींजड़ो में कैद रखे हैं ना जाने कब वो आजाद होगी हर वक़्त हर पल सरकारों पर उंगली उठाते है पर क्या हम कभी खुद पर उंगली उठाते हैं शायद नहीं क्योंकि हम अपने पर दोष क्यों देखेंगे वैसे भी बुराईयां दुसरों में दिखती है खुद में देखने का हिम्मत नहीं है हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन पुरी निष्ठा से शायद ही करते हो पढ़ाई करते वक्त फाकीबाजी काम करते वक्त कामचोरी करते हैं जैसे तैसे नौकरी पाते हैं फिर अपने कुर्सी पर जम कर केवल पगार पाते हैं और वक्त-बे-वक्त बस उंगलियाँ उठाते रहते हैं सच कहूं ग़र मैं तो मेरी नज़रों में अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही से न करना देश के साथ गद्दारी है ग़र सही से पढ़ेगें नहीं तो देश के प्रति क्या सेवा करेंगे काम में कामचोरी देश के प्रति चोरी क्या देश का किसान समृद्ध है? क्या देश का जवान प्रसन्न है? कह दो ना नहीं है कब तक यह नौटंकी होगी? एक दिन का आजादी का पर्व मनाना और पुरे वर्ष देश को छती पहूँचाना वह भी अपने कर्मों से
मेरी नज़रों में यह 15 अगस्त केवल अंग्रेजों से आजादी का पर्व है दरसल हम सब अभी भी दुख, चिंता, भ्रष्टाचार, गरीबी, व्यभिचार बलात्कार, शोषण, घृणा, जलन इन सब चिंजों से आज़ाद नहीं हुए है और ना जाने कब होगें ह्रदय दुखता है मेरा यह सब देखके इसलिए ना चाहते हुए भी सच को लिख देता हूँ एक उम्मीद लिए कि कास हम सुधर जाए। खैर छोड़ो हर बार कि तरह आप सभी को भी इस स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
बड़ी ही मेहनत से इस देश को आजादी मिली है….ज़रा सी मेहनत हम भी कर अपने ह्रदय को राग-द्वेष से आजाद कर सच्चे अमृत महोत्सव का संकल्प पुरा कर सकते है।
यक़ीनन धागे कच्चे हैं पर रिश्ते बेहद ही मजबूत हैं, क्योंकि बंधन यह तो प्रेम और वात्सल्य से, रक्षा करने के संकल्प से बांधने का पर्व है रक्षाबंधन, बहन भाई को, भाई-बहन को बाप-बेटे को, बेटे बाप को भाई-भाई को, पड़ोसी-पड़ोसी को वृक्ष को, प्रकृति को, समाज को हर कोई हर किसी को रेशम के धागे बाँधें या ना बाँधें पर रक्षा करने का संकल्प से जरूर बांधें क्योंकि जरूरी है समाज को और प्रकृति को प्रेम और वात्सल्य की जो जहर मन में भरा है उसे खत्म कर के ही पर्व मनाना है खुद के बहन के लिए दुपट्टा हो और दुसरो की बहन बिना दुपट्टा के हो यह मुखौटा कब तक…?
यह रक्षाबंधन कुछ बेहद करना है रक्षा करना ही है तो सबका करना है
सुना है, बिल्ली दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीती है, मतलब यही ना एक बार चोट खाने पर ज़्यादा संभालकर चलना चाहिए…! पर हम तो शायद उस बिल्ली से भी गए गुजरें हैं लाख ठोकर खाकर भी नहीं सुधरते हैं हर पल उन खुशियों से खेलते हैं जहां ग़म की कतारें हो बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, गुटखा छल, कपट, प्रपंच, धोखा यही सब में अपने आप को लगाए हुए हैं सुनने में और कहने में बहुत अच्छा लगता है पर अमल करने में…… खैर छोड़ो कुछ नहीं……!!!!
किन्नर अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी
Shanky❤Salty
किन्नर….! ईश्वर का प्रसाद हूँ मैं पर लोगों के लिए एक अभिशाप हूँ मैं माँ बाप का अंश हूँ मैं पर तिरिस्कार का वंश हूँ मैं ना महिला ना पुरुष हाँ किन्नर हूँ मैं जब जब खुशियां आती हैं तब तब तालियाँ बजाई जाती हैं पर मेरे तालियों से लोगों के मुँह बन जाता है ना जानें क्यों पराया सा व्यवहार होता है, हूँ तो आखिर इंसान ही ना मैं लड़कियों सा मन है मेरा लड़कों सा तन है मेरा बसते हैं ह्रदय में राम हैं मेरे फिर भी हर पल हर क्षण तिरस्कार की घूंट ही पीती मैं तिल तिल कर जीती हूँ मैं चंद रुपयों के बदले हम आशीर्वाद हैं देतें, दरसल बात रुपये की नहीं है बात तो पापी पेट की है गर मिला होता सम्मान समाज में या मिला होता सामन अधिकार समाज में तो शायद आज चंद रुपयों के खातिर अपमान का घूंट ना पीती मैं, छक्के, बीच वाले, हिजड़े के नाम से ना जानी जाती मैं ग़र घर में खुशियाँ आती हैं बिन बुलाए हम चले आते हैं ना जात देखते हैं ना देखते हैं धर्म बस तालियां बजा कर अपने मौला से उनकी खुशियों किटी दुआएँ करते हैं यक़ीनन बद्दुआएं मिलती है मुझको ,पर देती हर पल दुआएँ ही हूँ मैं आशीष हर किसी को चाहिए हमारी पर कोई माँ हमें कोख से जन्म देना नहीं चाहती है कहते है लोग, हूँ मैं विकलांग शरीर से पर शायद मुझसे घृणा कर अपनी सोच तुम विकलांग कर रहे हो खैर छोड़ो,,, ना नर हूँ ना नारी हूँ मैं संसार में शायद सबसे प्यारी हाँ मैं किन्नर हूँ…..!!!!!
मालिक मोहे अगले जन्म ना औरत करना ना मर्द करना करना मोहे किन्नर ही, मन में ना तो छल है ना है कपट है तो बस प्रेम तोहे से पिया
संत सताये तीनों जाए तेज़, बल और वंश ऐसे-ऐसे कई गये, रावण, कौरव, कंस
मुहम्मद इक़बाल मसऊदी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं यूनाँ मिस्र रोम सब मिट गए जहां से बाकी मग़र है अब तक, नामो निशां हमारा कुछ बात तो है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सिदयों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा
जड़ों को काट कर हम फल की उम्मीद कर रहें हैं संतों, महापुरुषों को सता कर विश्व शांति कि उम्मीद कर रहें है स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों कि डिग्री है ना तुम्हारे पास फिर क्यों नहीं देश में अमन, चैन, शांति कायम कर पा रहें हो? छोड़ो हटाओ खुद को शांत क्यों नहीं कर पा रहें हो ज़रा-ज़रा सी बात पर तनाव, क्रोध, हिंसा, चिड़चिड़ापन आखिर क्यों बहुत पढ़े हो तुम सब ना इसिलिए तो यह हाल है घर में बात होती नहीं है अपनों से और सोशलमीडिया पर हज़ारों फॉलोवर्स बना अपनापन दिखा रहें है कोई पशु से प्रेम कर रहा है तो कोई पौधों से तो कोई चीज़ वस्तुओं से पर हर पल हर छण मानवता कि हत्या हो रही है मानवीय मूल्यों का गला घोटा जा रहा है हम एक दुसरों से प्रेम कब करेंगे बस स्वार्थ है और स्वार्थ है ह्रदय में पीड़ा होती है जब भी संतों का तिरिस्कार देखता हूँ तो फिर से कहता हूँ जड़ों को काट कर हम फल की उम्मीद कर रहें हैं संतों पर अत्याचार कर हम विश्व शांति कि उम्मीद कर रहे हैं पर एक सवाल जरूर उठता होगा कि आखिर है क्या इन बाबाजी के पास जो ये विश्व शांति और मानव मात्र के हितैषी है तो जवाब सिर्फ एक ही है ज्ञान ज्ञान ज्ञान और सिर्फ ज्ञान वो भी गीता का ज्ञान जिससे वो हर एक के भीतर अनहद नाद जगा सकते हैं पर हम तो जड़ों को काट कर फल की उम्मीद कर रहें हैं बुराई और दोष हमें बहुत जल्दी दिख जाती है पर उनका निस्वार्थ सेवा कभी दिख नहीं पाता है विकास के पथ पर हम नहीं विनाश के पथ पर बढ़ रहें है मन में जहर है इसलिए तो समाज में भी वही घोल रहें है ह्रदय में प्रेम नहीं है इसलिए प्रेम की चाहत रखतें है ग़र है तुम्हारे अंदर करूणा, प्रेम, ममता, माधुर्य तो ज़रा बाँट कर दिखलाओ पर सच में तुम तो जड़ों को काट कर फल की उम्मीद कर रहें हो खैर छोड़ों मर्जी तुम्हारी हैं जैसा करोगे वैसा ही भरोगे
वर्ष 2021 में एक पुस्तक लिखी थी “सच या साजिश ?: संस्कृती पर प्रहार” हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में। वह भी मात्र ₹१-२ के मुल्य पर आशा करता हूँ आप सब पढ़ेंगे और अपना विचार जरूर रखेंगे।
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एक सृष्टि है सुंदर-सी प्यारी-सी बेहद खुबसूरत-सी, जब उस सृष्टि को बाँटा गया तो बहुत से ग्रह, नक्षत्र, तारे, सितारे हो गए, उसमें हमारी पृथ्वी हो गई अब उसे भी महाद्वीपों में बाँट दिया, महाद्वीपों को देशों में विभाजित कर दिया देशों को राज्यों में बाँटा गया राज्यों का जिला में बटवारा हुआ जिला का अंचल में विभाजन हो गया, अंचल से प्रखण्ड में प्रखण्ड से गाँव, गाँव से मुह्ह्ल्ले, कसबे कर के बाँटता गया…. खैर छोड़ों,,,, यहाँ तक तो थोड़ा ठीक था जब जन्म हुआ तो कहाँ जन्म हुआ? मतलब किस घर में, किस कुल में ,किस धर्म में, किस जात में, हिन्दू ,मुस्लिम ,सिक्ख, ईसाई कह कर खुद को बाँटें फिर हिन्दू में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र मे बाँटें मुस्लिम होकर भी शिया ,सुन्नी में खुद को बाँटें, चलो कोई नहीं,,,, घर में भी माँ, बाप, भाई, बहन, सगे-संबंधी में भी बटवारा जमीन का टुकड़ा भी बाँटा पैसे का बटंवारा किया यह सोच कर कि बाँटने के बाद वह मेरा होगा पर हकीकत तो सामने तब आई जब मृत्यु दरवाजे पे आई और मुस्कुरा कर कही “चलो वक्त हो गया है तुम्हारा ,जो है तुम्हारा सब बाँधो और साथ ले चलो” दो पल रूक देखा मैंने आखिर बचा ही क्या है मेरा शुरुआत से अंत तक तो सिर्फ बाँटा ही बाँटा है भला बाँटने से कोई भी चीज बढ़ती थोड़ी है….? फिर क्या था सब कुछ छोड़ जाना पड़ा
रंग तो बेशुमार हैं और उन बेशुमार रंगों में रंग सात हैं इंद्रधनुष के पर हकीक़त तो यह है कि उस सात रंगों में भी रंग एक ही है रंग-ए-सफ़ेद इश्क़ का…
One more book is done by your blessings & kind support.
First of all, I offer my gratitude by bowing to God. Who inspired me to write. I thank my parents. The existence of this book would have been difficult without his blessings. I am grateful to those writers readers and critic bloggers who helped me to excel in my writing. I would also like to thank Preeti Sharma ji and Radha Agarwal ji. I would like to express my sincere thanks to Sachin Gururani for the help he has given in making the cover of my book. To all those who helped me and did its proof reading and to all those who increased the respect of my creation with their thoughts. Also, a heartfelt thank you to all those who helped me write this book.
In this book I have written my journey. Yes, the final journey has shown the reality of death.
Yes, death!! that death which is known to all, but don’t know when it will come but it won’t kill us. I have written this book like satire in the form of lines after studying & understanding Shrimad Bhagwat Geeta, reading the voices of saints and great men.
What we call the final journey? In fact, is completely different from the point of view of spirituality. We keep the truth under the mask and call the lie as truth. The truth has been written just by removing the veil of that lie.
Hope you all read this book and take your life towards truth.
देखो न राम कभी सम्मान न मिला राम आपकी अयोध्या जी में राम हमारी माँ सीता जी को राम जनक जी ने कन्या दान किया था राम शीश झुकाकर दान लिया था दशरथ जी ने राम फ़िर क्यूँ न मिला हमारी माँ सीता जी को सम्मान राम षड्यंत्रों का शिकार हो वनवास को गई माँ हमारी राम अग्नि परीक्षा तक देनी पड़ी हमारी माँ को राम फिर भी चैन ना मिला आपके अयोध्या वासियों को राम क्या से क्या कह गए आपको राम बन कर राजा रामचंद्र जी आप राम त्यागा हमारी माँ को राम रखा प्रजा का सम्मान राजा रामचंद्र जी ने राम हृदय हमारा रो रहा है राम बन रहा है भव्य मंदिर रामलला का राम दिलवा दो न सम्मान हमारी माँ को राम अपने अयोध्या जी में राम जो प्रेम किया था हमारे प्यारे राम जी ने हमारी माँ से राम वह दिखला दो राम सच कहूं राम कभी सम्मान न मिला राम आपकी अयोध्या जी में राम हमारी माँ सीता जी को राम
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हम सभी को यह लगता है की “मोक्ष” मृत्यु के बाद ही होता है, पर मेरी नज़रों में “मोक्ष” तो जीते जी ही हो सकता है, शायद “मोक्ष” वह स्थिति है जिसमें कोई भी खुशियाँ हमें खुश कर नहीं सकती है और कोई भी ग़म हमें शोक में डुबो नहीं सकता है बस हर पल आनंद ही आनंद हर क्षण उसी एक की ही अनुभूति होना ही “मोक्ष” है, “मोक्ष” एक ज्ञान है, जिस शरीर को हम अपना समझते है क्या वह सदा टिक सकता है…? बस एक झटके में मिट्टी में मिल जाएगा, आग में राख हो जाएगा, इसलिए शरीर के मरने से पहले अपने अहम को मार देना चाहिए, अपने अहंकार को राख कर देना चाहिए बस यही “मोक्ष” है मेरी नज़रों में
श्रीकृष्ण ने कहा है ये श्रीमद्भागवत में ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः मेरा ही वंश है सभी जीवों में। मस्जिद के अजान में कृष्ण ही है ना? मंदिर के आरती में भी कृष्ण ही है ना? उस ब्राह्मण पंडित में भी कृष्ण ही है ना? उस चमार जूता सिलने वाले में भी कृष्ण ही है ना? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः अजान कानों में चुभती थी। मंदिर के घंटों से सिर दर्द होता था। पंडित ठग लगता था। चमार से घृणा होती थी। पडोसी से परेशानी होती थी। ऊँचे जाति से जलन होती थी। नीची जाति से परेशानी होती थी। मन में दो की भावना थी। सच कहूं, तो गीता की पंक्तियाँ ना पता थी। खैर छोड़ो, मैंने बतला दिया ना। अब कृष्ण ही कृष्ण देखो। भरोसा है ना? कृष्ण पर? श्रीमद्भागवत पे? ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ना करो राग, ना करो द्वेष, ना करो घृणा गाड़ी में बैठ गए तो गाड़ी नहीं ना हो गए? गाड़ी पुरानी होती है तो कबाड़ में चली जाती है शरीर भी पुराना होगा तो शमशान चला जाएगा। डरते क्यों हो?
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।२३।।४
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं न आग उसे जला सकती है न पानी उसे भिगो सकता है न हवा उसे सुखा सकती है
सब ने कहा है। मेरे कृष्ण ने कहा – बस भरोसा कर जीवन में अपनाना होगा वो साहिब मेरा एक है, कृष्ण के सिवा है ही क्या दुसरा? लिखने वाला भी वही है, और पढ़ने वाला भी वही है
मेरी लिखने का उद्देश्य किसी की भी भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं होता है पर मेरे लिखे व्यंग्य, पंक्तियों से बहुत से लोगों के बीच गलतफहमियां उत्पन्न हो रही है इसलिए अबसे मैं सिर्फ और सिर्फ अपनी डायरी में ही लिखुँगा और किताबों में ही मेरी लेखनी मिलेगी। और कहीं भी नहीं। यह एक अकेला अब थक गया है कोई भी साथी ने हाथ न बढ़या है बस ताने और दो बातों ने मेरे दिल को बहुत जख्मी किया है जितना वक्त मुझे सुनाने में लगाते हो ग़र उसका कुछ वक्त मुझे ज़रा सा सुनने में लगा देते ना तो शायद यह फैसला हम कभी ना लेते यक़ीनन मैं बिना लिखें नहीं रह सकता हूँ पर अब तुम्हें बिना मुझको पढ़ें रहना ही होगा वैसे भी जिसे तुम शैंकी समझ रहे हो ना उसकी आयु कुछ पल कि ही है अंतिम यात्रा के साथ सब कुछ थम जाएगा
पढ़ूंगा सबको पर कहूंगा कुछ नहीं बाँध मुट्ठी मैं आया था खोल मुट्ठी मैं जाऊंगा बस अब मुस्कुरा कर मैं आप सबो को हाथ जोड़ क्षमा चाहता हूँ और अलविदा कहता हूँ
हाल क्या पुछते हो जनाब बेहाल है या खुशहाल है ग़र पता नहीं तो यार क्यों पता नहीं खै़र छोड़ों हम है राम जी के और राम जी हमारे इतना ध्यान रखा करो ग़र हो तुम भी राम जी के तो साथ मेरे रहा करो वर्ना तुम मेरा राम राम स्वीकार करो
आज सुबह जल्दी उठा था मैं नहा-धोकर रामजी की पुजा कर बैठ अख़बार पढ़ रहा था कि तभी एक फोन आया और कुछ काम से बाहर जाना हुआ मेरा काम खत्म कर घर आ ही रहा था की रास्ते पर शनि मंदिर पर नज़र पड़ गईं, सोचा, चलो हो आते हैं सालों बाद आज शानि मंदिर में प्रवेश कर ही रहा था की तभी बाहर मुझे कुछ भिखारी दिखे, बड़े ही मासुमियत से कहे रहे थे वे “कुछ दे दो मालिक भगवान भला करेगें आपका“ इतने में ही किसी सज्जन व्यक्ति ने तड़ाक से कह दिया “मेहनत-वेहनत करो यार ,क्या भीखा माँगते रहते हो“ और इतना कह अंदर मंदिर चल दिए, मैं भी पीछे-पीछे गया उनके, उनको देख मैं दंग रह गया हाथ फैला कर कह रहे थे शनि महाराज से “बिटिया की शादी नहीं हो रही है ज़रा कुछ करो महाराज, बेटा का नौकरी जल्दी हो जाए शनि महाराज कृपा करो, मेरे धंधे में बरकत दो महाराज बरकत दो“ इतना कह हाथ जोड़ लिए और शनि महराज के पाँव पर गिर गए फिर उठ कहते है “ऊँ शनैश्चराय नमः ऊँ शनैश्चराय नमः ऊँ शनैश्चराय नमः“ फिर प्रणाम कर मंदिर से बाहर आयें और भिखारियों को दो-दो रूपये के सिक्के देकर मेहनत करने की नसीहत दे चलते बने, यह देख मैं हसता हुआ मंदिर के अंदर गया तो देखा शनि महाराज जी भी मुस्कुरा रहे थे और शायद कह रहें हों धन्य हो, हे मानव ! तुम-री लीला तुमनें इतनी जल्दी रंग बदला की गिरगिट भी तुझको देख अपनी हरकत भुला
Written by:- Ashish Kumar Modified by:- Ziddy Nidhi
परिस्थिति अनुकूल हो तो सब आजु-बाजू ही नज़र आते है पर जब परिस्थिति विकट हो तो निकट नज़र कोई नहीं आता है परेशान था मैं, कुछ अनुकूल ना था हाँ मेरा व्यवहार भी कुछ पल के लिए प्रतिकूल था कमरे कि बिखरी चीजों में तुम्हें खोजता था यकिनन मेरे पैर अब लड़खडाते है आँखों से भी कम नजर आता है धड़कनों का तो तुम्हें पता ही है लिखना तो छूट रहा है अब हर किसी से मेरा रिश्ता टूट रहा है अब ऊंगली मुझको नहीं उठानी है वक्त, हालात और तुम पर हाँ गलती मेरी ही है और गलत भी मैं ही हूँ लगाम मेरी नहीं थी ज़ुबां पर इसलिए तो हर कोई ख़फ़ा है मुझ पर क्या लेकर आया था मैं और लेकर क्या जाऊँगा मैं चार दिन की ही है ज़िन्दगी ना तो भीड़ साथ जाएगी और ना ही तुम ठीक है मेरी आवाज अच्छी थी मेरी कुछ हरकतेें अच्छी थी हाँ यार वो सब था पर अब नहीं खैर छोड़ों ये सब बातें स्वास्थ्य तो जा ही रहा है साथ ही धन दौलत भी अब तो मैं चलता हूँ हो सके तो तुम आ जाना ग़र नहीं तो अंतिम यात्रा कि ख़बर मिल ही जाएगी हाथ जोड़कर ही कहता हूँ साँसें है तब तक ही साथ रहो ना साँस रूकते ही मैं यादें बन तुम्हारे साथ रह लूंगा ना
दो दोस्त मिलते हैं तो क्या होता है? चुगली होती है तीसरे की 😆 पर जब दो लेखक मिलते है तो सिर्फ किताबों कि ही बात होती है चाहे वो मंजुर नियाज़ी साहब की हो या हो कबीर जी की बातें नालंदा विश्वविद्यालय की बातें हो या हो मगध विश्वविद्यालय की बातें राम जी की भी बातें और अल्लाह की बातें भी केदारनाथ की बातें और अमरकंटक के नर्मदा की भी बातें…… बातें है खत्म कहाँ होती है……? जब निकलती है तो बहुत दुर तक जाती, उम्र में तो हम माँ बेटे जैसे हैं हकीकत में खून का रिश्ता नहीं, पर हाँ हैं तो हम दोनों ही उसी ब्रह्म के संतान……. कहतीं तो वो मुझको बेटा है और मैं उन्हें आण्टी कुछ लोग कहते हैं वो आण्टी नहीं माँ जैसी लगती हैं तो कुछ कहते किसी जन्म की माँ जरूर होगीं वो मेरी, पर जो भी हों, हैं तो मेरी सबसे प्यारी आण्टी जी, हर रिश्ते में स्वार्थ देखा पर यहाँ सिर्फ निस्वार्थ और निश्छल प्रेम ही छलकता देखा है, दोनों के उम्र में इतना फर्क है और मिले भी पहली बार हैं पर अपनापन सा महसूस होता है पता ही न चला वक्त कब बित गया, कुछ मिठाईयाँ और चॉकलेट ही लेकर गया और आपने भी कुछ पैसे दिये पर वह सब तो वक्त के साथ खत्म हो जाएगा लेकिन आपका वात्सल्य और माधुर्य प्रेम तो मेरे साथ आशीर्वाद बन कर भी हमेशा रहेगा चाय तो जल्दी पीता नहीं था पर आपके साथ चाय पर चर्चा भी हो गई पेट भरा था फिर भी आपके साथ खाना खाने की किस्मत राम जी ने लिख ही दिया था……. बात तो हुई हरिणा दीदी के बारे में, मधुसूदन अंकल, कुमूद दीदी, निधि दीदी, प्रीति, वर्मा अंकल, पदमा-राजेश आण्टी की बातें राम जी की भी बातें, हरि नारायण की भी बातें हुई शंकर से नर्मदा का कंकर तक मृत्यु से मोक्ष तक जीवन से जीवन जीने की कला तक बस माँ भवानी की कृपा हम दोनों पर बनी रहें सच में आपसे मिलकर जितनी खुशी हुई उतनी खुशी और कभी किसी से भी मिलकर नहीं हुई थी आप स्वस्थ रहे और हमेशा लिखते रहें
हनुमान चालीसा हर किसी को पढ़ना है किसी को घर में तो किसी को रोड़ पर तो किसी को मस्जिदों के सामने तो किसी को मंदिरों में इसके घर के बाहर तो उसके घर के बाहर बड़ी बड़ी रैलियाँ निकालनी है पर किसी को भी हनुमान जी की तरह वाणी में विनय नहीं रखना है ह्रदय में धैर्य नहीं रखना है सदाचार रख नहीं सकते ब्रह्माचर्य का तो नामों निशान नहींं है है तो है बस चित में राग और द्वैष खैर छोड़ो हनुमान चालीसा हर किसी को पढ़ना है
मंदिर गए थे कुछ लोग हाँ भीख माँगने ही देखा था मैंने उन्हें माना कि हाथ में कटोरा ना था पर नियत में भीख ही थी अमर होने कि भीख माँग रहे थे यह देख राम जी मुस्कुरा रहे थे और मुस्कुराए भी तो क्यों नहीं राम जी ने ही तो द्वापर युग में कृष्ण रूप में आकर मानव मात्र के लिए जब गीता का ज्ञान दिया अर्जुन को तो उन्होंने स्पष्ट कहा था
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सूखा सकती है।
स्पष्ट है, तुम तो हमेशा से ही अमर हो फ़िर भी कटोरा लेकर भीख क्यों? अज्ञान से या नासमझी से या मुर्खता से?
जब माँग रहे हो राम जी से तो राम जी को माँगो ना। यह चिटपुटिया चीजें क्यों माँगोंगे?
हाथ पर गीता रख कसमें नहीं खानी चाहिए। हाथ में गीता लेकर उसको पढ़ना चाहिए।
गाड़ी में बैठ गए तो गाड़ी नहीं बन जायेंगे। घर में बैठ गए तो घर नहीं बन जायेंगे। मेहेंदी का पत्ता दिखता हरा है पर वास्तविक में तो लाल है। कब पहचानोगे अपनी लाली को??? अपनी यात्रा को सच में अंतिम कर लो नहीं तो जिसे अंतिम यात्रा कहते हो ना दरसल हकीकत में वो अंतिम होती नहीं।
Hope you are not fine😁 If you are fine then I’m sure you all forgot me😅 Btw, come to the point. I’m planning for my 11th book named as “My Last Journey” Totally based on death. How we welcome A newborn body To The last farewell of a body.
Because without your support My words are incomplete. So I request you to all Please give your valuable Suggestion about the topic in this form 👇
तुम मिलो या ना मिलो पर तुझे पाया है तो पाया है मैंने, ना तो इश्क़ की बात करेंगे और ना ही इबादत की, हम बात करेंगे तो सिर्फ और सिर्फ तेरी ही बातें
ग़र मिल जाते तुम तो फ़िदा ना होते हम, ये अल्फ़ाज़ तुम्हारें ना होते जो हम आज लिख रहें हैं, आँखों से आँसू युंही न छलकते, तुझको ही पुकारूँ, ग़र मिल जाते तुम तो फ़िर किसपे हम मरते
होलिका में लकड़ी जलेगी फेरे लेतें फिरोगें पर हमारा अहम कब जलेगा….? राम जी के लिए मन का मनका कब फिरेगा…? पापिन, अविद्या कब मिटेगी….? अहंकार को राख होते कब देखेंगे….? होली में लाल हो या हो पीली हम उसी रंग में रंग जाते हैं वो कहते हैं लाल ना रंगु ना रंगु पीली पीया मोहे अपने ही रंग में रंग दो ना रंग दो ना…. सच में राम जी ज्ञान के रंग में रंग दो ना ऐसा रंग में रंग दो जिससे सब कुछ राम राम राम राम ही दिखे नहीं देखना है मुझको जात, धर्म, मजहब, रंग भेद की मूरत ऐसा रंग दो कि वो रंग कभी उतरे ना यह होली आपके साथ होली राम जी आपके साथ हो’ली’ राम जी
मेरी एक दोस्त है, नाम है उसका रिया है तो मेरी सबसे अच्छी दोस्त लेकिन Attitude है उसके अंदर बहोत। फिर भी जैसी भी है, अच्छी है मेरी दोस्त। चलो चलते है दुसरे दोस्त पर नाम है उसका Samar वो है मेरे क्लास का मोनीटर सब पर रोब जमाता है, आता है कुछ भी नहीं फिर भी, अपने आप को smart समझता है जब क्लास में टीजर नहीं हो वो भी Attitude दीखता है। लेकिन फिर भी, मेरा सच्च दोस्त कहलाता है। अब आता है तीसरा मित्र उसका नाम है Shanky मैं उसे चिढ़ाती हूँ snaky-snaky-snaky जब भी उससे बातें करू मुझे परेशान करता है, है मेरा सबसे प्यारा दोस्त। दीदी दीदी बुलाता है। ~ Imrana!
Thanks For Reading
A Lovely poem written by my Cute-cum-Funny Imrana Didi✨❤ Please give your views in the comment box about this poem.
बैठा हूँ भीड़ में ही पर रूठी है भीड़ मुझसे किरदार हज़ारों हैं पर ख़ामोशी नहीं मुझमें बस मौन हूँ मैं हस हस कर ज़िन्दगी काट रहे हैं वो आखिर कब तक हम भीड़ में जियेगें
यात्रा तो अकेले ही करनी है बेशक अंतिम यात्रा में भीड़ तो होगी पर केवल शमशान तक ही उसके आगे की यात्रा में क्या वो भीड़ साथ निभाएगी???
रूपये, पैसे, धन, दौलत, दिमाग खर्च कर के वो नहीं मिल सकता है जो आपने महाशिवरात्रि की रात्रि में दिया है। धन्यवाद सदाशिव शंभू धन्यवाद🙏💕
चारों प्रहर में पुजा हुई आपकी दुध से, दही से, धी से, मधु से विल्वप्रत्र से, जल से, चंदन से पर शंभो यह चिज, वस्तु आपके शिवलिंग स्वरूप में टिक न सकी पुष्प मुरझा गए, दुध, दही, जल तो बह गए जो भी अर्पण की सब उतर गया शंभू बस आप थे, हैं और सदा रहेंगे ठीक वैसे ही हम भी है शंभू गाड़ी में बैठ गए तो खुद को गाड़ी नहीं मानते हैं घर में रहते हैं तो खुद को घर नहीं मानते हैं जग को देखा था अब तक शंभो पर आपने तो उसे ही दिखा दिया जिससे सारा जग है सुख-दुख सपना है केवल शंभू ही अपना है ना तो अन्न लिया ना लिया जल पर शंभू ने जो दिया है उसे शब्दों में बयां करना संभव नहीं है तृप्त कर अनहद नाद दिया है
देखा है मैंने भाँग पीने से नशा चढ़ता है ठीक उसी प्रकार तेरा नाम मेरे अंतः में बसता है पर तेरी सौगंध खा कहता हूँ मैं भोले बाबा के नाम से ही सारी ज़िंदगी सुधरता है
शिवरात्रि सोने का नहीं जागने का दिन है अपने आत्मज्ञान को जागाने का दिन है अपने शिव स्वरूप में विश्रांति पाने की रात्रि है
उपवास करने का दिन है पर भूखे नहीं मरना है शरीर से कुछ भी न खाओ-पीयो पर अपनी आत्मा को राम रस-शिव रस से तृप्त कर दो सुंदर श्रृष्टि को देखते हो पर यह श्रृष्टि जिससे है उसको क्यों नहीं देखते हो
मेहंदी के पत्ते भी खुद को हरा ही समझते है उन्हें भी अपनी लाली का अंदाज़ा नहीं है तुम भी चीज, वस्तु, रूपये, पैसे में खुशियाँ ढूढ़ते हो तुम्हें भी अपनी शक्तियों का अंदाज़ा नहीं है
कब तक खुद को खुशियों और ग़म की जंजीरों से बाँधें रखोगे खुद को शरीर समझ कर कब तक जुल्म ढहाओगे हिंदू मुसलमान समझ कर कब तक झोपड़ियों में रहोगे
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, सिया, सुन्नी समझ कर कब तक खुद को ठगोगे गोरे काले भी तो समझते हो ना आखिर कब तक राजा हो या रंक असली औकात तो शमशान में दिख ही जाती है
इस महाशिवरात्रि शिवजी पर दूध, घी, जल, बेलपत्र, फूल, फल चढ़ा कर पुजा करो या ना करो पर अपने आत्म स्वरूप से उस आत्म शिव की पूजा जरूर से जरूर करना।
भोले बाबा कहते हो उन्हें तो वो कहीं हिमालय पर, गुफाओं में, मंदिरों में, मस्जिदों में तुम्हें मिलें या ना मिलें मुझे पता नहीं है। पर तुम्हारे भीतर वो तुम को जरूर से जरूर मिलेगें। बस करबद्ध प्रार्थना है सबसे इस महाशिवरात्रि अपने अंतःकरण में अपने भीतर अपने आप से मिल कर देखों। मेरा वादा है आप सबसे फ़िर कुछ भी देखने को बाकी नहीं रह जाएगा।
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
ज़िंदगी भी अब मुझको व्यर्थ सी लगती है खुद का अस्तित्व ढुँढनें में मुझको असमर्थ सी महसूस होती है मेरी हर कोशिश ना जाने क्यों व्यर्थ सी होती है हर पल लोग खफा हो जाते है हर जगह हम असफल हो जाते है आँखे बंद करते हीं आँखों से आँसु बह जाते है इंसानियत पल-दो-पल मिटता जाता है एक-दुजे से इंसान जलता ही जाता है मुट्ठी में रेत की तरह समय बितता जाता है अर्थ कि चिंता कर मनुष्य एक दिन अर्थी पर लेट ही जाता है
“गीता” यह तो माँ है, माँ! शरीर रूपी माँ नहीं आत्म रूपी माँ है ज्ञान रूपी माँ है
थके, हारे, गिरे हुए को उठाती है बिछड़ों को मिलाती है भयभीत को निर्भय, निर्भय को नि:शंक नि:शंक को निर्द्वन्द्व बनाकर नारायण से मिला के जीते जी मुक्ति का साक्षात्कार कराती है मेरी माँ “गीता”
ऐसा पढ़ा है मैंने,, श्री कृष्ण के मुख से निकली है “गीता” श्री विष्णु का ह्रदय है “गीता”
परन्तु, वास्तव में “गीता” तो किसी मजहब, पंथ, समुदाय, जाती, धर्म, विषेश का नहीं है बल्कि यह तो जीवन जीने की कला है जिस तरह रोता हुआ बच्चा माँ की गोद में आकर चुप हो जाता है वैसे ही “गीता” माँ को पढ़ कर हर बच्चा, बुढ़ा, जावन अपने आप को निश्चित कर सकता है
578 भाषाओं में “गीता” का अनुवाद को चुका है जिसका भी मन है पढ़ने को वो किसी भी भाषा में “गीता” को पढ़ सकता है मैं आज “गीता जयंती” पर शुभकामनाएं क्या दुंगा आप सब को…….बस करबद्ध प्रार्थना है 24 घंटे में से मात्र 24 ससेकेंड “गीता” रूपी माँ के गोद में बिताए। मैं तो इतना विश्वास से कह सकता हूँ कि विश्व में “गीता” के समान कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है
मेरे चरित्र पर उँगली उठाए जाते हैं आँखों से मेरे कपड़े भी उतारे जाते हैं मैं जंगल में जितना जानवरों से नहीं डरती उतना तो रोड़ पर घुमते मानव रूपी दरिन्दों से हूँ डरती
मेरे सीने को देख कभी किसी ने आम कहा, तो किसी ने संतरा कहा, किसी ने उसे छुना चाहा, तो किसी ने उसे नोचना चाहा, सड़ जाते मेरे ये दो फल तो अच्छा होता हर किसी को चाहिए होता है यह फल
सोशल मीडिया में अपने मेसेजस चेक करो तो जितने भी अंजान मेसेज हैं उन सब को उतसुकता है मेरे जिस्म का नाप जानने की कितने बड़े है मेरे फल? उम्र क्या है मेरी? साथ चलोगी तुम मेरे? मेरे साथ सोउगी? मैं तुम्हें खुश कर दूंगा कितना लोगी? कितने यार है तेरे? हर पल चिंतित रहती हूँ मैं
हाँ मैं लड़की हूँ!
किसे अपनी व्यथा सुनाऊँ? अपने दोस्तों से कहती हूँ तो उन्हें मुझसे ज्यादा इस तरह के मेसेजस और कमेंटस आतें हैं
चौदह साल का लड़का भी पीछे पड़ा है साठ साल का बुढ़ा भी साथ सोने के लिए मर रहा है साथ काम करने वाला बंदा भी मौके के फिराक में बैठा पड़ा है
हाँ मैं लड़की हूँ!
माना कि गलती मेरी थी छोटे कपड़े मैंने पहने थे पर उनका क्या जिन्होंने हिजाब पहनना था? तुमने तो अपनी आग में नवजातों को भी नहीं छोड़ा था
कहूँ तो क्या कहूँ मैं लिखूँ तो क्या लिखूँ मैं स्तन ही तो था जिससे दुध निकलता था ऐसा दुध जिसे न तो गरम करना पड़े और न ठंडा जैसा है वैसा ही अमृत तुल्य है उस स्तन से निकल दुध को पीकर तुम बड़े हुए थे और आज उस स्तन को ही नोचने पर आदम हुए हो?
हाँ मैं लड़की हूँ!
नहीं, नहीं मैं तो खिलौना हूँ मेरे जिस्म को नोचना दरिंदो का काम मेरी आत्मा के मसलना अपनों का काम
एक महिला को स्तन कैंसर हुआ था उन्होंने राम जी को धन्यवाद देते हुए “शर्म के दो पहाड़” कविता लिख दी थी कहा था उन्होनें “अब तुम पहाड़ पर उंगलियाँ नहीं चढ़ा पाओगे, जिस पहाड़ से दूध की धार बहती थी अब वहाँ से मवाद बहतें हैं, अब पहाड़ के जगह समतल मैदान बचें हैं।”
दरिंदों ने दर्द इतना दिया की अब वे दर्द में भी खुश है।
हैलो हरिणा दीदी,🤗 आज आपका जन्मदिन है। 😍 लेकिन ना तो मैं आपको आज गिफ्ट दे पाऊँगा।😔 और ना ही आप मुझे पार्टी दे पाएंगे।😒 लेकिन फिर भी 15 दिन पहले से ही आपके जन्मदिन के लिए मैं उत्साहित था। 🥳 क्या करूँ ? क्या करूँ ? के चक्कर में कुछ भी नहीं कर पाया। 😑😣 लेकिन कोई नहीं दीदी जल्दी ही आप सात समंदर पार आओगे फिर बहुत सारा गिफ्ट्स दुंगा😇 और पार्टी भी आपसे लूंगा।🥰 आप तक पहुँचने का सबसे अच्छा और एक ही जरिया है, आपकी लिखी किताब “जीवन के शब्द“
पता नहीं क्या लिखूँ मैं आज दीदी, ना कोई राज है, और ना ही कोई ख़्वाब है बस एक चाहत है🙏 आप जहां भी रहें 🤗 चेहरे पर मुस्कान बना रहे 😁 जरुरी नहीं की हम रोज ही बात किया करें 🥺 बस जितना भी बात करें आपसे वो यादें हमेशा ताजा रहें 🤩 और जल्दी से आप इस साल 5बुक पब्लिश करें 🥳 ताकि उसे मैं अपने बुक सेल्फ में जगह दे सकुं “ख़लील जिब्रान” ने कहा था ना दीदी “साथ होने के लिए हमेशा पास खड़े होने की ज़रूरत नहीं होती।“ बस राम जी से एक दुसरे के लिए प्रार्थना ही काफी है🙏 खैर ! जो भी हो मेरी बक-बक तो रुकेगी नहीं🙈 इसलिय हरिणा दीदी आपके जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं 🥳 बस मस्कुराते रहे🤗 सारी अलए-बलाए दूर खुद-ब-खुद हो जाएगीं 🙏
When I write, I always feel your presence With your fragrance In my breath Don’t know why I smile With some tears Seriously, I don’t know This is our memories or your love
The Flowers of Faith Who Grew on the Tree of Love, Broke Several Times in Anger, Lost Between Leaves of Issues, Trample Down Under Misunderstandings. Still… Don’t Know How?? Habitually a New Flower Every Time Bloomed…
स्त्रीमन एक कविता संग्रह है, जो स्त्रीयों के विचारों को दर्शा रही है। इसमें सभी उम्र और वर्ग की औरतों की सोच को ध्यान में रखा गया है।
इस किताब की यह बात अच्छी है की इसमें औरतों की सभी तरह की भावनाओं को प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी है जैसे चिंता, बंधन, प्रेम, दुखः, महत्वकांक्षा, जोश और समाजिक सोच का उनपर असर। कुछ कविताएँ तो ऐसी भी हैं जिनको पढ़ कर सब दृश्य चलचित्र की तरह आंखों के सामने चलता अनुभव होता है। ऐसी कुछ कविताओं में मेरी पसंदीदा हैं- स्त्री-मन, वैश्या और बोझ। पर इस पुस्तक में मुझे सबसे अच्छी वो कुछ कविताएँ लगीं जो किसी भी महिला को जोश से भर देने के लिए काफी हैं, जैसे- तू चलती रह, नारी हूँ आज की हूँ, वो योधा है। इस पुस्तक में माँ और बच्चे के रिश्ते पर भी कुछ एक कविताएँ हैं। और बहुत सारी ऐसी कविताएँ भी हैं औरतों के घुटन और सामाजिक और पारिवारिक बंधन को दर्शा रहीं हैं जैसे- कभी बेचारी, रूह मेरी, चमकता आकाश, असमानता। कुछ कविताएँ प्रेम विरह पर भी हैं जिनमें मुझे सबसे अच्छी लगी- मैं अजीज नहीं।
मेरी तरफ से यह एक बेहद असाधारण एंव बेहतरीन कविता संग्रह है जो अपने पुस्तक शीर्षक को बहुत अच्छे तरीके से सार्थक करती है।
इसलिए मैं अपनी रेटिंग इस पुस्तक के लिए 5 star देना चाहूँगा।
उम्मीद है मेरी तरह बाकी पाठकों को भी यह किताब पसंद आयेंगी और मेरी यह समीक्षा उन्हें सही मार्गदर्शन देंगीं।
और सभी से अनुरोध भी करता हूँ कि किताब को एक बार जरूर पढ़ें।
First of all, I bow my gratitude to God, who has inspired me to write, I thanks to my mother “Pramila Sharan” and father “Shatrughan Sharan“. Because without his grace I would not exist.
I am grateful to those writers-readers and critic bloggers, who helped me in my writing.
I also thank Radha Agarwal Ji and Nidhi Gupta “Jiddy”. I would like to thank those who helped me and did proof reading of it and made my words beautiful.
The help that Sachin Gururani did in making the cover page of my book I thanks them wholeheartedly.
Apart from this to all those who have helped me directly or indirectly.
This book is a Journey of Old Age Home to Orphanage Home in a poetic manner.
This book is written for the mature reader. It’s purpose is not to hurt anyone’s feelings. It is written in the favor of every person, society, gender, creed, nation or religion. These are the author’s own views. Hope that by reading this book, you will try to understand and appreciate the author’s point of view. It is merely an attempt to portray social reality. The aim of the book is to promote peace, non-violence, tolerance, friendship, unity, prosperity, happiness and integrity.
The internal mechanisms that schedule periodic bodily functions and activities is know as Biological clock or Circadian Rhythm.
3am to 5am-(The life force is especially in the lungs)
Those who wants their body is healthy and active then This is the best time for drinking some lukewarm water, walking in the open air and doing pranayama. People who get up in Brahmamuhurta are intelligent and enthusiastic and those who stay asleep, life becomes dull.
5am to 7am – (The life force is in the large intestine)
This is the time for defecation and the bath should be done. Those who defecate after 7 o’clock in the morning have many diseases.
7am to 9am – (The life force is in the stomach)
At this time we can take only milk or fruit juice or any beverage items
9am to 11am – (The life force is in the pancreas and spleen)
This time is suitable for food. Drink lukewarm water (according to convenience) sips in between meals.
11am to 1pm – (The life force is in the Heart)
There is a law in our culture to do mid-evening around 12 noon from 11 to 1 pm. During this time Food forbidden. This time is known as Sandhya Kaal. This time is best for reading, writing, singing or doing spiritual things.
1pm to 3pm– (The life force is in the small intestine)
About 2 hours after the meal should drink water according to thirst. Eating or sleeping at this time hinders the absorption of nutritious food and juices and the body becomes sick and weak.
3pm to 5pm – (The life force is in the bladder)
If you drink water 2-4 hours before this time, there will be a tendency to pass urine at this time. And you’ll never suffer from kidney or urine disease.
5pm to 7pm – (The life force is in the kidney)
Light food should be taken at this time. Do not eat for 10 minutes before sunset to 10 minutes after (in the evening). Milk can be drunk three hours after meals in the evening
7pm to 9pm – (The life force is in the brain)
At this time the brain is especially active. Therefore, except in the morning, the lesson read in this period is remembered quickly.
9pm to 11pm – (The life force is in the spinal cord)
This time provides maximum relaxation. The awakening of this time exhausts the body and the intellect.
11pm to 1am – (The life force is in the gall bladder)
The awakening of this time produces bile disorders, insomnia, eye diseases and brings early old age. New cells are formed during this time.
1am to 3am – (The life force is in the liver)
The awakening of this time spoils the liver (liver) and the digestive system.
Rishis and Ayurvedacharyas have said that it is forbidden to eat food without feeling hungry. Therefore, keep the quantity of food in the morning and evening in such a way that during the time mentioned above, one feels hungry freely.